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________________ न्यायंकुमुदचन्द्र जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इस वृहत्त्रय की समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया था। आपने लिखा था-'अकलंकदेव के मौलिक ग्रन्थों में लघीयत्रय के अतिरिक्त तीन ग्रन्थ सबसे अधिक महत्त्व के हैं-सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, और प्रमाणसंग्रह। शायद इन्हीं के संग्रह को वृहत्त्रय कहते हैं / " मुख्तार सा० की संभावना किसी हद तक ठीक हो सकती है, किन्तु लघीयस्त्रय का परिचय देते हुए हम बतला आये हैं कि इसका नाम लघीयत्रय अवश्य है किन्तु इसे हम तीन स्वतंत्र प्रकरणों का संग्रह नहीं कह सकते, अतः उसके आधार पर उक्त तीनों ग्रन्थों को वृहत्त्रय नाम नहीं दिया जा सकता। हाँ, यह संभव है कि किसी ने लघीयस्त्रय की अन्तरंग परीक्षा किये बिना केवल उसके नाम के आधार पर उक्त तीनों ग्रन्थों को बड़ा होने के कारण वृहत्त्रय नाम दे दिया हो। किन्तु अभी तक 'वृहत्त्रय' का उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया और हमें यह एक कोरी कल्पना ही प्रतीत होती है। अतः अकलंककृत प्रन्थावली में से इस नाम को निकाल देना चाहिये। ___ न्यायचूलिका-इसका उल्लेख भी जैनहितैषी के उक्त लेख में ही सर्वप्रथम मिलता है / उसमें लिखा है-"न्यायचूलिका नामक ग्रन्थ का भी उल्लेख मिलता है कि वह अकलंकदेव का बनाया हुआ है।" किन्तु न तो लेखक ने ही उसके स्थान का निर्देश किया और न किसी स्थल से हमें ही इस ग्रन्थ के अस्तित्व का निर्देश मिल सका। अतः जब न्यायचूलिका नाम के किसी ग्रन्थ तक का भी पता नहीं है, तब उसको अकलंकरचित ठहराना निराधार है ___ स्वरूपसम्बोधन-स्व० डा० विद्याभूषण ने अकलंकरचित ग्रन्थों में इसका निर्देश किया है और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित लघीयस्त्रयादिसंग्रह नामक पुस्तक में अकलंक के नाम से यह प्रकाशित भी हो चुका है। उसकी प्रस्तावना में श्रीयुत प्रेमीजी ने इसे अकलंकरचित बतलाया है। सप्तभंगीतरङ्गिणी में इसकी तीसरी कारिका 'तदुक्तमकलंकदेवैः' करके उद्धृत की गई है। तथा अकलंक के अन्य ग्रन्थों के साथ स्वरूपसम्बोधन का अध्ययन करने से उसका कहीं कहीं अकलंक के अन्य प्रकरणों से मेल खाता है / यथा कर्ता यः कर्मणां भोक्ता तत्फलानां स एव तु // स्व० स० कर्मणामपि कर्ताऽयं तत्फलस्यापि वेदकः // न्या० वि० इसके अतिरिक्त इसमें अनेकान्त की शैली का भी अनुसरण किया गया है। इन सब बातों के आधार पर इसे अकलंकरचित कहा जा सकता है किन्तु इसके विरुद्ध अनेक ठोस प्रमाण हैं जिनके आधार पर इसे अकलंक की रचना नहीं कहा जा सकता। भण्डारकर प्राच्यविद्यामन्दिर पूना की पत्रिका, जिल्द 13. पृ० 88 पर स्वरूपसम्बोधन के कर्ता के सम्बन्ध में प्रो० ए० एन० उपाध्ये का एक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें उन्होंने लिखा है कि कोल्हापुर के लक्ष्मीसेनमठ में स्वरूपसम्बोधन की एक कनड़ी टीका मौजूद है। उसमें नयसेन के शिष्य महासेन को उसका कर्ता बतलाया है। तथा नियमसार की संस्कृत टीका में पद्मप्रभमलधारी देव ने 'उक्तञ्च षण्णवतिपाषंडिविजयोपार्जितविशालकीर्तिभिर्महासेनपण्डितदेवैः' और 'तथा चोक्तं श्रीमहासेनपण्डितदेवैः' करके स्वरूपसम्बोधन की 12 वीं और 4 थी कारिका उद्धृत की है। उसी लेख के एक फुटनोट में यह भी लिखा है कि पण्डित 1 अनेकान्त वर्ष 1, पृ. 135. 2 हिस्ट्री ओफ दि मिडीवल स्कूल ऑफ इण्डियन लॉजिक पु० 26 / 3 पृ०४९।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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