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________________ प्रस्तावना 5 प्रस्ताव में विरुद्धादि हेत्वाभासों का विगतवार निरूपण किया है, तथा दिङ्नाग के विरुद्धाव्यभिचारी नामके हेत्वाभास का विरुद्ध में अन्तर्भाव दिखाकर असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक हेत्वाभास से अवशिष्ट हेत्वाभासों का अकिञ्चित्कर में अन्तर्भाव दिखाया है। इस प्रस्ताव में 12 कारिकाएँ हैं। 6 प्रस्ताव में 12 // कारिकाएँ हैं। इसमें वाद का स्वरूप दर्शाया है। जय पराजय व्यवस्था तथा जाति का कथन करके धर्मकीर्ति के द्वारा प्रमाणवार्तिक में दिये गये दोष दधि उष्ट्र के अभेदत्वापत्ति को जात्युत्तर बतलाया है। तथा अनेकान्त में संभवित विरोधादि आठ दोषों का परिहार करके वस्तु को उत्पादादि रूप सिद्ध किया है। 7 प्रस्ताव में 9 / / कारिकाएँ हैं। इसमें आगमप्रमाण का वर्णन है। आगम का प्रतिपादक होने के कारण.सर्वज्ञ तथा अतीन्द्रियज्ञान की सिद्धि करते हुए उसमें आपादित दोषों का परिहार किया है। अन्त में, आत्मा कर्ममल से किस प्रकार छूटता है और उसे किस प्रकार सर्वज्ञता प्राप्त होती है, इत्यादि बातों का खुलासा किया है। 8 प्रस्ताव में 13 कारिकाएँ है। इसमें सप्तभंगी का निरूपण है / तथा नैगमादि सात नयों का भी कथन है / नयों का विशेष स्वरूप जानने के लिये नयचक्र ग्रन्थ देखने का निर्देश किया है। 9 प्रस्ताव में 2 कारिकाएँ हैं / निक्षेप का निर्देश करके प्रकरण का उपसंहार कर दिया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में लगभग 89 कारिकाएँ और शेष भाग गद्य में है। ___इसके छठवें प्रस्ताव में एक बात विशेष मनोरंजक है / बौद्धों ने जैनों के लिये जो अह्रीक पशु, अलौकिक, तामस, प्राकृत आदि विशेषण प्रयुक्त किये हैं, उन्हीं के असंगत सिद्धान्तों के द्वारा उन विशेषणों को बौद्धों के ही लिये उपयुक्त बतलाया है। यथाशून्यसंवृतिविज्ञानकथा निष्फलदर्शनम् / सञ्चयापोहसन्तानाःश (स) प्तैते जाद्य (ड्य) हेतवः॥ प्रतिज्ञाऽसाधनं यत्तत्साध्यं तस्यैव निर्णयः / यददृश्यमसंज्ञानं त्रिकमज्झी (ही) कलक्षणम् // प्रत्यक्षं निष्कलं शेषं भ्रान्तं सारूप्यकल्पनम् / क्षणस्थानमसत्कार्यमभाष्यं पशुलक्षणम् // प्रेत्यभावात्ययो मानमनुमानं मृदादिवत् / शास्त्रं सत्यं तपो दानं देवतानित्यलौकिकम् // शब्दः स्वयंभूः सर्वकार्याकार्येष्वतीन्द्रिये / न कश्चिचेतनो ज्ञाता तदर्थस्यति तामसम् // पदादिसत्त्वे साधुत्वन्यूनाधिक्यक्रमस्थितिः। प्रकृतार्थाविघातेऽपि प्रायः प्राकृतलक्षणम् // ___ वृहत्त्रय-इस ग्रन्थ के अस्तित्व की सूचना जैनहितैषी' में प्रकाशित 'श्रीमद्भट्टाकलंक' शीर्षक निबन्ध में दी गई थी और कहा गया था कि कोल्हापुर में श्री पं० कल्लप्पा भरमप्पा निटवे के पास लघीयस्त्रय और वृहत्त्रय दोनों ग्रन्थ मौजूद हैं। इस सूचना के बाद अकलंकदेव के प्रायः सभी परिचयलेखकों ने उसे दोहराया / लघीयत्रय का प्रकाशन हुए वर्षों बीत गये किन्तु वृहत्त्रय के किसी को दर्शन भी न हो सके। पं० नाथूरामजी प्रेमी ने निटवे महोदय से इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में लिखा पढ़ी की किन्तु उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला शायद निटवे महोदय उसे अपने साथ स्वर्ग में ले गये हों। हमारे मत से तो 'लघीयस्त्रय' नाम ने ही इस वृहत्त्रय' की कल्पना को जन्म दिया है। किसी ने सोचा होगा कि जब एक लघीयस्त्रय है तो कोई घृहत्त्रय भी होना ही चाहिये। एक बार अकलंकदेव के ग्रन्थों के बारे में लिखते हुए पं० 1 भाग 11, अंक 7-8 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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