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________________ न्यायकुमुदचन्द 11 शब्दनयसिद्धि-में शब्दसिद्धि में व्याकरण की उपयोगिता बतलाकर बौद्ध, नैयायिक और वैयाकरणों के द्वारा अभिमत शब्द के स्वरूप का विचार किया है। शब्दभेद से अर्थभेद मानकर शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नयों का तथा तदाभासों का स्वरूप बताया है। 12 निक्षेपसिद्धि-में निक्षेप के अनन्तभेद होने पर भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से उसके चार प्रकार बताये हैं। नाम के व्यस्त, समस्त, एक, अनेक आदि आठ भेद किये हैं। स्थापना के सद्भाव और असद्भाव तथा द्रव्य के आगम और नोआगम भेद किये हैं। सिद्धसेन गणि की तत्त्वार्थटीका, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमाणमीमांसा और स्याद्वादमञ्जरी में इसकी कारिकाएँ उद्धृत की गई हैं / तत्त्वार्थटीका तथा जिनदास की चूर्णि में इसका नामोल्लेख भी है। चूर्णिकार ने तो इसे जिनशासन का प्रभावक ग्रन्थ माना है। प्रमाणसंग्रह-पं० सुखलालजी के प्रयत्न से पाटन के भण्डार से यह ग्रन्थ प्राप्त हुआ है / सिद्धिविनिश्चयटीका. में इसका उल्लेख आता है। उसी टीका से यह भी प्रतीत होता है कि आचार्य अनन्तवीर्य ने इस पर भी प्रमाणसंग्रहालङ्कार या प्रमाणसंग्रहभाष्य नाम को टीका रची है। प्रमाणसंग्रह की रचना संभवतः न्यायविनिश्चय के बाद हुई है। क्योंकि इसकी बहुत सी कारिकाएँ न्यायविनिश्चय में मौजूद हैं तथा उनके ऊपर अकलंकदेव ने कुछ वृत्ति या उपक्रमसूचक वाक्य नहीं लिखे हैं। यह गद्यपद्यात्मक है। कहीं कहीं गद्यभाग में पद्य का व्याख्यान भी किया है। किन्तु समस्त गद्य और पद्य का व्याख्यान-व्याख्येयरूप सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। इसका नाम सार्थक है क्योंकि प्रत्येक एकान्त पक्ष के विरुद्ध जितने प्रमाण हो सकते थे, उन सबका संग्रह इस ग्रन्थ में किया है। इसीलिए इस ग्रन्थ की भाषा और भाव अति दुरवगाह्य है। अकलंक के उपलब्ध ग्रन्थों में इतना प्रमेयबहुल-प्रमाणों का संग्रह करनेवाला अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय की रचना की तरह इसकी रचना भी गद्यपद्यात्मक तथा जटिल है / यह ग्रन्थ अकलंक के अन्य ग्रन्थों का परिशिष्ट कहा जा सकता है अतः संभव है कि ये उनके अन्तिमकाल की रचना हो। इसमें 9 प्रस्ताव हैं। 1 प्रस्ताव में 8 // कारिकाएँ हैं। विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहकर उसके इन्द्रिय अनिन्द्रिय और अतीन्द्रिय रूप से तीन भेद किये हैं। इसके 'त्रिधा श्रुतमविप्लवम् ' अंश पर जैनतर्कवार्तिककार शान्त्याचार्य ने आक्षेप किया है। इस प्रस्ताव में प्रत्यक्ष और उसके भेदों की चर्चा है। 2 प्रस्ताव में 9 कारिकाएँ हैं। परोक्ष प्रमाण के भेद स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को प्रामाण्य सिद्ध करके आगम के बल से परोक्ष पदार्थों के साथ भी अविनाभावसम्बन्ध प्रहण कर सकने का प्रतिपादन किया है। 3 प्रस्ताव में 10 कारिकाएँ हैं। अनुमान प्रमाण तथा उसके अवयव-साध्य साधन आदि का वर्णन है। इसकी 27 वीं कारिका में धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक की 'चित्रं तदेकमिति चेदिदं चित्रतरं ततः' कारिका की समालोचना की गई है। 4 प्रस्ताव में 12 // कारिकाएँ हैं। इसमें हेतु के त्रैरूप्य का खण्डन करके अन्यथाभुपपन्नत्वरूप एक लक्षण का स्थापन किया है। हेतु के अनेक भेदों का विस्तार से वर्णन करके धर्मकीर्तिसम्मत हेतु के भेदों की संख्या का विघटन किया है।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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