________________ प्रस्तावना 11 सिद्धि की हैं। तथा, 'ज्ञान अचेतन प्रधान का धर्म है, अदृष्ट आत्मा का गुण है,' आदि बातों का निराकरण करके आत्मा की विकारपरिणति को ही कर्मबन्ध का कारण बतलाया है / 5 जल्पसिद्धि-में स्वपक्षसिद्धि-असिद्धिनिबन्धन जयपराजयव्यवस्था का स्थापन करके धर्मकीर्ति द्वारा वादन्याय में स्थापित असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन नाम के निग्रहस्थानों की विविध व्याख्याओं का निर्देश करके खण्डन किया है। नैयायिकसम्मत छल, जाति आदि को अनुपादेय बतलाया है। वाद, जल्प और वितण्डा में वाद और जल्प को एक बतलाकर वितण्डा को कथाभास बतलाया है। प्रसङ्गवश वचन के विवक्षामात्रसूचकत्व और अन्यापोहमात्राभिधायित्व का निरास करके उसे वास्तविक अर्थ का वाचक सिद्ध किया है। हेतुलक्षणसिद्धि-में धर्मकीर्तिकृत हेतुबिन्दु की प्रथम कारिका-"पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुः स च त्रिधा / अविनाभावनियमात् हेत्वाभासास्ततोऽपरे // " का विस्तार से खण्डन करके हेतु का लक्षण एक अन्यथानुपपत्ति ही सिद्ध किया है। कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि हेतुओं को पृथक् हेतु बतलाया है। अनुपलब्धि को विधि और प्रतिषेध-दोनों का साधक बतलाया है। अदृश्यानुपलम्भ को भी वस्तुसाधक माना है। धर्मकीर्ति के 'सहोपलम्भनियमात्' हेतु का विविध विकल्पों द्वारा खण्डन किया है। 7 शास्त्रसिद्धि में बतलाया है कि स्याद्वाददृष्टि से अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रतिपादक ही शास्त्र होता है अतः सुगतादिप्रणीत शास्त्र शास्त्र नहीं है। तथा वचन विवक्षामात्र के सूचक न होकर यथार्थ अर्थ के प्रतिपादक होते हैं अतः सुगतमत में शास्त्र के लक्षण का अभाव बतलाकर देशना का भी अभाव बतलाया है। इसी तरह शरीर आदि से रहित होने के कारण ईश्वर में देशना का अभाव बतलाकर सृष्टिकर्तृत्व की विस्तार से मीमांसा की है। वेदों के अपौरुषेयत्व का भी खण्डन किया है। सराग भी वीतराग की तरह चेष्टा करते हैं अतः यथार्थ उपदेष्टा का निर्णय नहीं हो सकता, इस शंका का निरास किया है। 8 सर्वज्ञसिद्धि-में धर्मकीर्तिसम्मत सर्वज्ञ की केवल धर्मज्ञता का निराकरण करके विविध युक्तियों से पूर्ण सर्वज्ञत्व का प्रतिपादन किया है / ज्योतिज्ञान तथा सत्यस्वप्न के दृष्टान्त का उपयोग भी सर्वज्ञसिद्धि में किया है। कुमारिल द्वारा सर्वज्ञाभाव में दी गई प्रमेयत्व सत्त्व वक्तत्वादि युक्तियों का तथा तत्त्वसंग्रह में कुमारिल के नाम से दी गई 'दशहस्तान्तरं व्योग्नि' इत्यादि कारिका में कही गई युक्तियों का भी निरास भले प्रकार किया है। अन्त में सर्वज्ञत्वप्राप्ति के कारण तप आदि की भी चर्चा की है / ___9 शब्दसिद्धि में शब्द के आकाशगुणत्व, नित्यत्व, अमूर्तत्व आदि धर्मो का खण्डन करके उसे पौद्गलिक सिद्ध किया है। भतृहरि के शब्दाद्वैतवाद तथा स्फोटवाद का भी खण्डन किया है। स्वलक्षण में सङ्केत की अशक्यता के कारण बौद्धों के द्वारा मानी गई अवाच्यता का खण्डन करके संकेत आदि की सिद्धि की गई है। 10 अर्थनयसिद्धि-में ज्ञाता के अभिप्राय को नय बतलाकर अर्थप्रधान नैगमादि तथा शब्दप्रधान शब्दादि नयों का निर्देश किया है। नैगमादि चार नयों का स्वरूप विस्तार से बतलाकर सांख्यादिकल्पित मतों को नयाभासों में गिनाया है। सुनय और दुर्नय का भी स्वरूप दर्शाया है। व्यवहारनयसम्मत व्यवहार को वास्तविक सिद्ध करके ब्रह्माद्वैत आदि अद्वैतवादियों के द्वारा कल्पित व्यवहार का निरास किया है /