SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48 न्यायकुमुदचन्द्र के 'अगुणवान् गुणः' की आलोचना, नैयायिक के पूर्ववत् , शेषवत् , सामान्यतोदृष्ट और सांख्य के वीत, अवीत और वीतावीत हेतुओं की समालोचना आदि, विषयों पर भी प्रकाश डाला है। - तीसरे में आगम, मोक्ष और सर्वज्ञ का विवेचन करते हुए बुद्ध के करुणावत्व सर्वज्ञत्व चतुरार्यसत्य आदि का खब उपहास किया है तथा वेदों के अपौरुषेयत्व और सांख्य के मोक्ष की भी आलोचना की है। अन्त में सप्तभंगी का विवेचन करके ग्रन्थ में प्रतिपादित प्रमाण की चर्चा का उपसंहार करते हुए ग्रन्थ समाप्त हो जाता है / अकलङ्क के उपलब्ध साहित्य में यह ग्रन्थ विशेष महत्त्व रखता है। इसमें अपने विषय का खासकर अनुमानप्रमाण का साङ्गोपाङ्ग वर्णन है। इसकी परिभाषाओं का उत्तरकालीन ग्रन्थकारों ने विशेष अनुसरण किया है। विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थों में इससे अनेक पद्य उद्धृत किये हैं और अपने श्लोकवार्तिक के मूल में इसकी कई कारिकाएँ ज्यों की त्यों सम्मिलित करली हैं। अकलंकदेव को भी यह ग्रन्थ विशेष प्रिय जान पड़ता है क्यों कि अष्टशती में इसकी दो एक कारिकाएँ गद्य रूप में मिलती हैं तथा प्रमाणसंग्रह का कलेवर तो इसकी कारिकाओं से ही पुष्ट किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अष्टशती प्रमाणसंग्रह और संभवतः सिद्धिविनिश्चय से भी पहिले इस ग्रन्थ का निर्माण हुआ है। सिद्धसेन के न्यायावतार के बाद न्यायविषय का यही एक ग्रन्थ उपलब्ध है, और इसी के आधार पर उत्तरकालीन जैनन्यायविषयक साहित्य का सर्जन हुआ है। ___ यद्यपि सन्धियों में इसे स्याद्वादविद्यापतिरचित बतलाया है किन्तु टोकाकार वादिराज इसे अकलङ्करचित लिखते हैं। तथा अन्तिम पद्यों में अकलंक पद आता है। शैली वगैरह भी अकलंकदेव के अन्य ग्रन्थों से मिलती हुई है। तथा ' तदुक्तमकलंकदेवैः' करके स्वामी विद्यानन्द ने प्रमाणपरीक्षा में इसको एक कारिका भी उद्धृत की है। अतः इसके अकलंकरचित होने में किसी प्रकार के सन्देह को स्थान नहीं है। न्यायविनिश्चयवृत्ति-अकलंकदेव ने प्रायः अपने सभी प्रकरणों पर छोटी सी वृत्ति भी लिखी है। न्यायविनिश्चय की वृत्ति अभी तक उपलब्ध तो नहीं हो सकी है, किन्तु कुछ प्रमाणों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि लघीयत्रय और सिद्धिविनिश्चय की तरह अकलंकदेव ने उस पर भी वृत्ति लिखी थी। तथा जब लघीयत्रय जैसे लघुप्रकरणों पर वृत्ति लिखी जा सकती है तब न्यायविनिश्चय सरीखे महत्त्वपूर्ण वृहत् ग्रन्थ को यों ही नहीं छोड़ा जा सकता। न्यायविनिश्चय की वादिराजरचित एक स्थूलकाय टीका का निर्देश हम ऊपर कर आये हैं। उस टीका में प्रत्यक्ष के लक्षण की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने प्रत्यक्ष के तीन भेद बतलाये हैं। उस पर शंकासमाधान करते हुए लिखा है-"कथं पुनः कारिकायामनुक्तं त्रैविध्यमवगम्यते ? 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा' इति शास्त्रान्तरे प्रतिपादनात् / ननु प्रत्यक्षलक्षणस्यापि तत्रैव प्रतिपादनात् इहावचनप्रसङ्ग इति चेत्, इहापि वृत्तिकारेण त्रैविध्यमुक्तमेव / " शंका-कारिका में तो प्रत्यक्ष के तीन भेद नहीं बतलाये, तब आप कैसे कहते हैं कि प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं ? उत्तर-शास्त्रान्तर में (प्रमाणसंग्रह में) 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा' ऐसा लिखकर प्रत्यक्ष के तीन भेद किये हैं।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy