________________ प्रस्तावना क्रमभावेऽपि तादात्म्यं प्रत्येयम्' यह वाक्य उद्धृत किया है / जो उसकी छठी कारिका की विवृति का अन्तिम वाक्य है। न्यायविनिश्चय-न्यायविनिश्चयविवरण के नाम से वादिराजरचित इसकी एक वृहत् टीका कुछ भण्डारों में मिलती है। अभी तक यह ग्रन्थ विशकलितरूप से इस टीका में ही पाया जाता था। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने बड़े परिश्रम से उस पर से इस ग्रन्थ का उद्धार करके उसे क्रमबद्ध किया है। न्यायकुमुदचन्द्र के संपादन में इसका उपयोग करने के लिये हमने भी टीका पर से इस ग्रन्थ का सङ्कलन करके मुख्तार सा० की प्रति के आधार पर ही उसे क्रमबद्ध और पूर्ण किया था। किन्तु अभी इसके अविकल होने में सन्देह है, कारण यह है कि मुख्तार सा० के संग्रह में कई कारिकाएं ऐसी हैं, जो मूल की प्रतीत नही होती तथा खोजने पर कुछ नवीन किन्तु सन्दिग्ध कारिकाओं का भी पता चलता है। इसमें तीन प्रस्ताव हैं-प्रत्यक्षप्रस्ताव, अनुमानप्रस्ताव और आगमप्रस्ताव / प्रथम प्रस्ताव के अन्त में एक, दूसरे के अन्त में दो और तीसरे के अन्त में तीन पद्य हैं / लघीयत्रय की तरह मंगलाचरण के बाद इसमें भी एक पद्य आता है, जिसमें 'न्यायो विनिश्चीयते' के द्वारा ग्रन्थ का नाम और उद्देश्य दोनों बतलाये गये हैं। शेष सम्पूर्ण ग्रन्थ कारिकाओं में निबद्ध है। वर्तमान संग्रह के अनुसार कारिका और पद्यों की संख्या मिलाकर पहले प्रस्ताव में 169 दूसरे में 216 और तीसरे में 94 है। मङ्गलाचरण और उद्देश्यनिर्देश के पश्चात् प्रत्यक्ष के लक्षण से ग्रन्थ का प्रारम्भ होता है। लघीयस्त्रय तथा प्रमाणसंग्रह में दत्त प्रत्यक्ष की परिभाषाओं की अपेक्षा इसमें दत्त परिभाषा में कई विशेषताएँ हैं। प्रथम तो इसमें लक्षण का क्रम ऐसा रखा गया है कि उसमें प्रत्यक्ष का विषय भी बतला दिया गया है / किन्तु यह विशेषता तो साधारण है। दूसरी और ध्यान देने योग्य विशेषता है लक्षण में 'साकार' और 'अञ्जसा' पदों का बढ़ाया जाना तथा विषय में 'द्रव्य' और 'पर्याय' के साथ साथ 'सामान्य' और 'विशेष' पदों का भी प्रयोग करना / 'साकार' और 'अञ्जसा' पदों की सार्थकता अथवा आवश्यकता का निर्देश तो मूल ग्रन्थ में नहीं किया गया किन्तु अर्थ, द्रव्य, पर्याय, सामान्य और विशेष का विवेचन विस्तार से किया है। प्रथम प्रस्ताव में ज्ञान को अर्थग्राही सिद्ध करते हुए बौद्धाभिमत विकल्प के लक्षण, तदाकारता, विज्ञानवाद, नैरात्म्यवाद, परमाणुवाद आदि की विस्तार से आलोचना की है और ज्ञान को स्वसंवेदी तथा निराकार सिद्ध किया है / द्रव्य और पर्याय की चर्चा करते हुए गुण और पर्याय में भेदाभेद बतलाकर उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का निरूपण किया है। सामान्य और विशेष की चर्चा करते हुए यौगों और बौद्धों के दृष्टिकोणों की आलोचना की है। इस प्रकार प्रत्यक्ष की परिभाषा में दत्त पदों के आधार पर विविध विषयों का विवेचन करने के बाद बौद्ध के इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदनप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष का, तथा सांख्य और नैयायिक के प्रत्यक्ष का खण्डन किया है। अन्त में अतीन्द्रियप्रत्यक्ष के लक्षण के साथ पहला प्रस्ताव समाप्त होजाता है। __दूसरे प्रस्ताव में अनुमान, साध्य, साधन, हेत्वाभास, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, जाति, वाद आदि का सुन्दर विवेचन है। तथा प्रसङ्गवश शब्द की अर्थाभिधेयता, सङ्केतित शब्द की प्रवृत्ति का प्रकार, जीव का स्वरूप, चैतन्य के सम्बन्ध में चार्वाक आदि के मत का खण्डन, वैशेषिक 1 प्रमाणफलयोः क्रमभेदेऽपि तादात्म्यमभिन्नविषयत्वञ्च प्रत्येयम् //