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________________ न्यायकुमुदचन्द्र यिकों ने माने हैं। 6 वीं कारिका की वृत्ति में बिना इच्छा के भी बचन की उत्पत्ति सिद्ध की गई है और बौद्धों को व्याप्तिप्राहक तर्कप्रमाण मानने के लिये लाचार किया गया है। 7 वीं कारिका की वृत्ति में धर्मकीर्ति के निग्रहस्थान के लक्षण की आलोचना की है। 13 वी कारिका की व्याख्या में स्वलक्षण को अनिर्देश्य माननेवाले बौद्धों के मत को विस्तार से आलोचना करके स्वलक्षण को भी कथंचित् अभिलाप्य सिद्ध किया है। सप्तभंगी का विवेचन करते हुए स्वामी समन्तभद्र ने केवल आदि के चार भंगो का ही उपयोग किया था किन्तु अकलङ्कदेव ने वैदिकदर्शनों के सामान्यवाद को सदवक्तव्य और बौद्धों के अन्यापोहवाद को असदवक्तव्य बतलाकर शेष भंगों का भी उपयोग कर दिया है। 36 वीं कारिका की वृत्ति में अनधिगतार्थप्राही अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण बतलाया है / 52 वीं कारिका को वृत्ति में बौद्धों के निर्वाण का लक्षण 'सन्तान का समूल नाश' किया है तथा सम्यक्त्व, संज्ञा, संज्ञि, वाकायकर्म, अन्तर्व्यायाम, अजीव, स्मृति और समाधि ये आठ अंग उसके हेतु बतलाये है / 99 वीं कारिका की व्याख्या में ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्ववाद की आलोचना की है। का० 101 में प्रमाणों की चर्चा करके सर्वज्ञ के ज्ञान दर्शन की युगपत् प्रवृत्ति सिद्ध की है। - का० 2 की वृत्ति में पूरणकाश्यप का नाम दिया है जो भगवान महावीर के समय में प्रभावशाली प्रतिद्वन्दियों में से था। का० 53 की वृत्ति में 'न तस्य किञ्चिद्भवति न भवत्येव कैवलम्' यह पद प्रमाणवार्तिक से लिया है। का० 76 में 'युक्त्या यन्न घटामुपैति तदहं दृष्ट्वाऽपि न श्रद्दधे ( ) उद्धृत किया है / 78 में पिटकत्रय को उदाहरण रूप में दिया है। 80 में 'सहोपलम्भनियमादभेदो नोलतद्धियोः' (प्रमाणविनिश्चय ) उद्धृत किया है। 89 में 'तादृशी जायते बुद्धिय॑वसायाश्च तादृशः / सहायास्तादृशः सन्ति यादृशी भवितव्यता।' उद्धृत किया है / 106 को वृत्ति में 'तथाचोक्तम्' करके निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है " अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः / नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तनिराकृतिः॥" इसके सिवा तत्त्वार्थसूत्र से भी एक दो सूत्र उद्धृत किये है / लघीयस्त्रय-इस ग्रन्थ का परिचय वगैरह प्रारम्भ में दिया गया है। इसकी शैली तथा अन्तिम पद्यों में आये 'अकलङ्क' शब्द से इसके अकलङ्करचित होने में कोई विवाद शेष नहीं रह जाता। तथा उस पर न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता और तात्पर्यवृत्ति के रचयिता, दोनों उसे अकलङ्करचित बतलाते हैं। तथा आचार्य विद्यानन्द ने इसकी तीसरी कारिका को 'तदुक्तमकलङ्कदेवैः' करके अपनी 'प्रमाणपरीक्षा' में उद्धृत किया है। इन सब प्रमाणे के आधार पर इस ग्रन्थ को अकलङ्करचित ही मानना चाहिये / __ स्वोपज्ञविवृति-लघीयत्रयग्रन्थ को विवृति भी अकलङ्करचित ही कही जाती है / प्रभाचन्द्र ने मूल और विवृति के आधार पर ही अपने न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ की रचना की है। इसकी शैली अष्टशती से मिलती है और परिमाण भी करीब करीब उतना ही है / यद्यपि इन सब बातों से ही यह विवृति अकलङ्करचित प्रतीत होती है। किन्तु इसके समर्थन में एक और भी प्रबल प्रमाण मिलता है। सिद्धिविनिश्चय टीका में 'उक्तं लघीयनये' करके 'प्रमाणफलयोः
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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