________________ प्रस्तावना शंका-प्रत्यक्ष का लक्षण भी शास्त्रान्तर में बतला ही आये हैं। तब यहाँ बतलाने की क्या आवश्यकता थी ? उत्तर-यहाँ भी ( न्यायविनिश्चय में ) वृत्तिकार ने तीन भेद किये हैं। इस शंकासमाधान से प्रमाणित होता है कि न्यायविनिश्चय पर भी एक वृत्ति लिखी गई थी। टीकाकार ने किसी किसी स्थल पर कुछ वार्तिकों को संग्रहश्लोक और कुछ को अन्तरश्लोक लिखा है / एक स्थान पर वे लिखते हैं - "निराकारेतरस्य' इत्यादयोऽन्तरश्लोका वृत्तिमध्यवर्तित्वात् / 'विमुख' इत्यादिवार्त्तिकव्याख्यानवृत्तिग्रन्थमध्यवर्तिनः खल्वमी श्लोकाः / वृत्तिचूर्णितां ? तु विस्तारभयान्नास्माभिर्व्याख्यानमुपदर्श्यते / संग्रहश्लोकास्तु वृत्तिप्रदर्शितस्य वार्तिकार्थस्य संग्रहपरा इति विशेषः / " (पृ० 120 ) अर्थात् 'निराकारतस्य ' इत्यादि श्लोक 'विमुख' इत्यादि वार्तिक के व्याख्यानस्वरूप वृत्ति के अन्तर्गत हैं अतः वे अन्तरश्लोक हैं। विस्तार के भय से वृत्ति के चूर्णिभाग ( संम्भवतःगद्य भाग ) का व्याख्यान हमने नहीं किया है। जिन श्लोकों में वृत्ति में बतलाये गये वार्तिक के अर्थ को संगृहीत कर दिया जाता है, उन्हें संग्रहश्लोक कहते हैं। अन्तरश्लोक और संग्रहश्लोक में यही भेद है। ___ इस उल्लेख से स्पष्ट है कि टीकाकार के सामने वृत्तिग्रन्थ मौजूद था और उसमें गद्य और पद्य दोनों थे। विस्तार के भय से उन्होंने गद्यभाग को तो छोड़ दिया किन्तु पद्यभाग को अपने व्याख्यान में सम्मिलित कर लिया। अनन्तवीर्य के एक उद्धरण से भी न्यायविनिश्चय की वृत्ति के अस्तित्व का पता लगता है / उन्होंने 'तदुक्तं न्यायविनिश्चये' करके एक वाक्य उद्धृत किया है / 'तदुक्तं न्यायविनिश्चयवृत्तौ' न लिखकर 'तदुक्तं न्यायविनिश्चये' लिखने से शायद पाठक यह कल्पना करें कि वह वाक्य वृत्ति का न होकर मूलप्रन्थ का ही अंश है। किन्तु अनन्तवीर्य के लघीयस्त्रयविषयक एक उद्धरण से, जिसका उल्लेख लघीयस्त्रय के परिचय में हम कर आये हैं, इस प्रकार की कल्पना को जन्म देने के लिये स्थान नहीं रह जाता। अनन्तवीर्य ने ' तदुक्तं लघीयस्त्रये' करके भी एक वाक्य उद्धृत किया है और वह वाक्य लघीयस्त्रय की विवृति में मौजूद है। वास्तव में अनन्तवीर्य की दृष्टि में मूल और वृत्ति ये दो पृथक् पृथक् वस्तुएं न थीं। वे दोनों को ही मूल और एक ग्रन्थ मानते थे। इसी से उन्होंने अपनी टीका में सिद्धिविनिश्चय और उसकी वृत्ति दोनों का व्याख्यान करके भी ग्रन्थ का नाम केवल 'सिद्धिविनिश्चय टीका' ही रखा है। उन्हीं का अनुसरण करते हुए प्रभाचन्द्र भी अपने न्यायकुमुदचन्द्र को 'लघीयस्त्रयालंकार' शब्द से ही पुकारते है यद्यपि उसमें लघीयस्त्रय और उसकी वृत्ति दोनों का व्याख्यान है। यथार्थ में अकलङ्कदेव की वृत्तियां इतनी महत्त्वपूर्ण हैं कि उनके निकाल देने पर न केवल अकलङ्क को समझ सकना ही दुष्कर होता है किन्तु उनके द्वारा अर्पित ज्ञानकोश के बहुत से अमूल्य रत्नों से भी वंचित होना पड़ता है। उनकी वृत्तियों में 'मूल' से भी अधिक पदार्थ भरा हुआ है / न्यायविनिश्चय के विवरणकार ने अपनी टीका में वार्तिकों के जो कई कई अर्थ किये हैं वह क्या उनकी अपनी बुद्धि का चमत्कार है ? नहीं, वृत्ति की सहायता पर ही उनका व्याख्यान अवलम्बित है / अतः विनिश्चय की वृत्ति के अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। 1 सिद्धिविनि• टी० पृ० 120 पू० /