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________________ प्रस्तावना शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने की अभिलाषा से पर्दे की ओट में घट रखकर उसने उसका आह्वान किया था। किन्तु शास्त्रार्थ में वह स्वयं ही बोलता होगा, जैसा कि हम ह्यूनत्सांग के विवरण में पढ़ चुके हैं। बौद्धसम्प्रदाय में तारादेवी का बड़ा सन्मान था और उसके तांत्रिक समाज की, जिसका एक समय भारत में बड़ा प्रभाव था, तारा अधिष्ठात्री देवी मानी जाती थी। बंगाल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से प्रकाशित बौद्धस्तोत्रसंग्रह की प्रस्तावना में डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने ताराविषयक साहित्य का परिचय कराते हुए तिब्बतीय भाषा के 62 तथा संस्कृत के 34 प्रन्थों की तालिका दी है। इससे पाठक सरलता से समझ सकते हैं कि बौद्धसम्प्रदाय में तारा की कितनी मान्यता थी। तारा का स्तवन करते हुए स्रग्धरास्तोत्र में लिखा है "विश्रान्तं श्रोतृपात्रे गुरुभिरुपहृतं यस्य नाम्नायभैक्ष्यं विद्वद्गोष्ठीषु यश्च श्रुतधनविरहान्मूकतामभ्युपैति / सर्वालङ्कारभूषाविभवसमुदितं प्राप्य वागीश्वरत्वं सोऽपि त्वद्भक्तिशक्त्या हरति नृपसभे वादिसिंहासनानि // 20 // " अर्थात्-"जिसने कभी गुरु के मुख से एक वाक्य भी नहीं सुना और जो अज्ञानी होने के कारण विद्वानों की सभा में एक शब्द भी नहीं बोल सकता, तुम्हारी भक्ति के प्रभाव से वह मनुष्य चतुरवक्ता हो जाता है और राजसभा में वादिरूपी सिंहों के आसन को हर लेता हैउन्हें पराजित कर देता है।" इससे पता चलता है कि तारा को बुद्धिऋद्धिदायिनी भी माना जाता था और उसकी भक्ति से न केवल मूक वाचाल हो जाता था किन्तु राजसभा में जाकर वादियों को पराजित भी कर सकता था। अतः कथा में वर्णित शास्त्रार्थ की रीति उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुकूल मालूम होती है। इस प्रकार घनत्सांग के संसारप्रसिद्ध ब्राह्मण की तरह इन्द्रजालिया बौद्धगुरु को अपने बुद्धिकौशल से पराजित करके अकलङ्कदेव ने तत्कालीन जनसमाज में काफी ख्याति प्राप्त की होगी, इसी से उनकी इस विजय का उल्लेख जगह जगह पाया जाता है। ___ इस प्रसिद्ध शास्त्रार्थ के अतिरिक्त भी अकलङ्कदेव ने अन्य अनेकों शास्त्रार्थ किये, क्योंकि उनके जीवन का लक्ष्य केवल एक शास्त्रार्थ से पूरा होनेवाला न था और उस समय सर्वत्र विपक्षियों का इतना प्राधान्य था कि उनको पराजित किये बिना कुछ कर सकना अशक्य था। ग्रन्थकार अकलङ्क पिछले प्रकरण में अकलङ्कदेव के शास्त्रार्थीरूप का दिग्दर्शन कराते हुए शिलालेखों और प्रन्थकारों के अनेक उल्लेखों के आधार पर हम उनकी वाक्पटुता और तार्किकता का थोड़ा सा परिचय करा आये हैं। किन्तु वह परिचय साक्षात् न होकर परम्परया है। उनकी अगाध विद्वत्ता, प्रौढ़लेखनी और गूढ अभिसन्धि का साक्षात् परिचय प्राप्त करने के इच्छुक जन को उनकी साहित्यगंगोत्री में मजन करने का प्रयास करना होगा। उनके लघीयत्रय प्रकरण का परिचय कराते समय हम उनकी शैली आदि के सम्बन्ध में कुछ बातें बतला आये हैं उनका लेख, गद्य हो या पद्य, सूत्र की तरह अति संक्षिप्त, गहन, और अर्थबहुल है। थोड़े से
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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