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________________ न्यायकुमुदचन्द्र में वर्णित कुछ बातों पर रोचक प्रकाश पड़ता है। घनत्सांग ने अपने यात्राविवरण में एक ऐसे ब्राह्मण की कथा का उल्लेख किया है जो पर्दे में बैठकर शास्त्रार्थ करता था और जिसे अश्वघोष बोधिसत्व ने उसी रीति से पराजित किया था जिस रीति से तारादेवी को पराजित करने की बात कथा में कही गई है। ह्यूनत्सांग लिखता है-"एक ब्राह्मण था जिसने मनुष्यों की पहुंच से बहत दर जंगल में एक स्थान पर एक कटी बनाई थी और वहीं पर उसने सिद्धिलाभ करने के लिये राक्षसों का वलिप्रदान किया था। इस अन्तरिक्षीय सहायता को प्राप्त करके वह बहुत बढ़ चढ़ कर बातें मारने लगा और बड़े जोश में आकर विवाद करने लगा। उसकी इन वक्तताओं का समाचार सारे संसार में फैल गया। कोई भी आदमी किसी प्रकार का प्रश्न उससे करे, वह एक परदे की ओट में बैठकर उसका उत्तर ठीक ठीक दे देता था / कोई भी व्यक्ति चाहे कैसा ही पुराना विद्वान और उच्च कोटि का बुद्धिमान हो, उसकी युक्तियों का खण्डन नहीं करपाता था / . . . . . ' इसी समय अश्वघोषबोधिसत्त्व भी वर्तमान था... . . 'वह उसकी कुटी पर गया और कहा-"मुझको आपके प्रसिद्ध गुणों पर बहुत दिनों से भक्ति है। मेरी प्रार्थना है कि जब तक मैं अपने दिल की बात न समाप्त करलूं आप परदे को खुला रक्खें / " परन्तु ब्राह्मण ने बड़े घमंड से परदे को गिरा दिया और उत्तर देने के लिये उसके भीतर बैठ गया और अन्ततक अपने प्रश्नकर्ता के सामने नहीं आया। अश्वघोष ने विचार किया जब तक इसकी सिद्धि इसके पास रहेगी, तब तक मेरी बुद्धि बिगड़ी रहेगी। इस लिये उसने उस समय बातचीत करना बन्द कर दिया। परन्तु चलते समय उसने कहा-“मैंने इसकी करामात को जान लिया, यह अवश्य परास्त होगा।" वह सीधा राजा के पास चला गया और कहा-“यदि आप कृपा करके मुझको आज्ञा दें तो मैं उस विद्वान महात्मा से एक विषय पर बातचीत करूँ।” . . . . . . . . ' विवाद के समय अश्वघोष ने तीनों पिटक के गूढ़ शब्दों का और पञ्च महाविद्याओं के विशद सिद्धान्तों का आदि से अन्त तक अनेक प्रकार से वर्णन किया। इसी विषय को लेकर जिस समय ब्राह्मण अपना मत निरूपण कर रहा था उसी समय अश्वघोष ने बीच में टोक दिया-"तुम्हारे विषय का क्रमसूत्र खण्डित होगया, तुमको मेरी बातों का क्रमशः अनुसरण करना चाहिये / " अब तो ब्राह्मण का मुख बन्द होगया और वह कुछ न कह सका / अश्वघोष उसकी दशा को ताड़ गया उसने कहा-"क्यों नहीं मेरी गुत्थी को सुलझाते हो ? अपनी सिद्धि को बुलाओ और जितना शीघ्र हो सके उससे शाब्दिक सहायता प्राप्त करो।" यह कहकर उसने ब्राह्मण को दशा को जानने के लिये परदे को उठाया। ब्राह्मण भयभीत होकर चिल्ला उठा, “परदा बन्द करो, परदा बन्द करो।" इस कथा से इस बात का पता लगता है कि उस समय के कोई कोई मनुष्य इस तरह की कोई सिद्धि प्राप्त कर लेते थे जो शास्त्रार्थ के अवसर पर उनकी सहायता करती थी। संभवतः ऐसी सिद्धियाँ तीक्ष्णदृष्टि मनुष्य के सामने अपना काम करने में असमर्थ होती थीं, इसी से बाजीगर की तरह पर्दे की ओट से उनका उपयोग किया जाता था और किसी प्रश्न का ठीक ठीक उत्तर उनकी सहायता से तभी दिया जा सकता था जब कि वक्ता को बीच में टोका न जाये। टोकने पर उसका प्रवाह रुक जाता था और वह सब भूल जाता था। संभवतः अकलंकदेव को भी जिस बौद्ध विद्वान् से शास्त्रार्थ करना पड़ा था उसे तारादेवी सिद्ध थी और 1 यात्राविवरण पृ० 393-96 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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