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________________ प्रस्तावना "कलि काल में वे कलङ्करहित अकलङ्क श्रुत को भूषित करें जिन्होंने घड़े में बैठी हुई मायादेवी-मायारूपधारिणी देवी को पैर से ठुकराया / " हनुमच्चरित में लिखा है "अकलक गुरुजीयादकलंकपदेश्वरः बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षागुरुरुदाहृतः / " "अकलङ्क पद के स्वामी वे अकलङ्क गुरु जयवन्त हों जो बौद्धों की बुद्धि की वैधव्यदीक्षा के गुरु कहे जाते हैं अर्थात् जिन्होंने बौद्धों की बुद्धि को विधवा बना दिया।" ___ अकलंक के बौद्धविजयसम्बन्धी उक्त उल्लेखों के अतिरिक्त अन्य भी कुछ ऐसे उल्लेख पाये जाते हैं जो उन्हें प्रबल तार्किक और वादिशिरोमणि बतलाते हैं। यथा न्यावि० वि० के अन्त में वादिराज उन्हें 'तार्किक लोकगस्त कमणि' लिखते हैं / न्यायकुमुदचन्द्र के तृतीय परिच्छेद के अन्त में आचार्य प्रभाचन्द्र उन्हें 'इतरमतावलम्बीवादिरूपी गजेन्द्रों का दर्प नष्ट करनेवाला सिंह बतलाते हुए लिखते हैं " इत्थं समस्तमतवादिकरीन्द्रदर्पमुन्मूलयनमलमानदृढप्रहारैः / स्याद्वादकेसर सटाशततीव्रमूर्तिः पञ्चाननो भुवि जयत्य कलङ्कदेवः // " अष्टसहस्री के टिप्पणकार लघुसमन्तभद्र ‘सकलतार्किकचक्रचूडामणिमरीचिमेचकितचरणनखकिरणो भगवान् भट्टाकलङ्कदेवः' लिखकर उनकी तार्किकता के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा प्रकट करते हैं / लघीयस्त्रय के वृत्तिकार अभयचन्द्र ने भी उन्हें इसी विशेषण से भूषित किया है / स्याद्वादरत्नाकर के रचयिता श्वेताम्बराचार्य देवसूरि 'प्रकटिततीर्थान्तरीयकलङ्कोऽकलङ्कः' लिखकर उन्हें मतान्तरों के दोषों का उद्भावक बतलाते हैं। पद्मप्रभमंलधारिदेव उन्हें 'तर्काब्जाक'-तर्करूपी कमल के विकास के लिये सूर्य बत / विद्वत्समाजमें ठंकदेव की तार्किकता और सभाचातर्य की इतनी ख्याति थी कि उत्तरकाल में विद्वानों में उन गुणों की गरिमा बतलाने के लिये उनके नाम को उपमा दी जाती थी। महाकवि वादिराज की प्रशंसा में कहा गया है कि वे सभा में अकलंकदेव के समान थे / तथा मेघचन्द्र की प्रशंसा करते हुए उन्हें 'षड्दर्शनों में अकलंकदेव के समान निपुण' बतलाया है / ___ इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि अकलंकदेव अपने समय के एक विशिष्ट विद्वान् और सभाचतुरवादी थे तथा बौद्धों को परास्त करने की घटना ने एक विश्रुत जनरव का रूप धारण कर लिया था। अतः अकलङ्ककथा. का शास्त्रार्थसम्बन्धी भाग कल्पित नहीं कहा जा सकता। किन्तु उसमें वर्णित बौद्धों का पर्दा डालना पर्दे के भीतर से घड़े में बैठी हुई तारादेवी का शास्त्रार्थ करना, अकलंक का उसे न जीत सकना, चक्रेश्वरी का आना और तारा को बीच में टोककर प्रकारान्तर से प्रश्न करने की सम्मति देना आदि, कुछ बातें ऐसी हैं जो बीसवीं शताब्दी के पाठकों को बिल्कुल असङ्गत प्रतीत होती हैं। परन्तु इतिहास का परिशीलन करने से कथा 1 पृ. 1137 / 2 नियमसार की तात्पर्यवृत्ति के प्रारम्भ में। 3 सदसि यदकलङ्कः कीर्तने धर्मकीतिः वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः / इति समयगुरूणामेकतः सङ्गतानां प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः॥ (vide ins no. 39. Nagar taluy by mr. Rice.) 4 “पट्तकेंप्वकलङ्कदेवविवुधः साक्षादयं भूतले / " चन्द्रगिरि पर्वत का शिलानं० 47 (प्रो० हीरालाल)
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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