SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ S न्यायकुमुदचन्द्र ____ अर्थात्-"जिसने गुप्तरूप से घट में अवतारित तारा देवी को बौद्धों के सहित परास्त किया, सिंहासन के भार से पीड़ित मिथ्यादृष्टि देवों ने जिसकी सेवा की। और मानों अपने दोषों का प्रायश्चित करने ही के लिये बौद्धों ने जिसके चरणकमल की रज में स्नान किया उस कृती अकलङ्क की प्रशंसा कौन कर सकता है ? सुना जाता है कि उन्होंने अपने असाधारण निरवद्य पांडित्य का वर्णन इस प्रकार किया था राजन् साहसतुङ्ग ! श्वेत छत्र के धारण करनेवाले राजा बहुत से हैं किन्तु आपके समान रणविजयी और दानी राजा दुर्लभ है। इसी तरह पण्डित तो बहुत से हैं किन्तु मेरे समान नानाशास्त्रों के जानने वाले कवि, वादी और वाग्मी इस कलिकाल में नहीं हैं। राजन् ! जिस प्रकार समस्त शत्रुओं के अभिमान को नष्ट करने में तुम्हारा चातुर्य प्रसिद्ध है उसी प्रकार विद्वानों के मद को जड़मूल से उखाड़ फेंकने में मैं पृथ्वी पर ख्यात हूँ। यदि ऐसा नहीं है तो आपकी सभा में बहुत से विद्वान् मौजूद हैं उसमें से यदि किसी की शक्ति हो और वह समस्तशास्त्रों का पारगामी हो तो मुझ से वाद करे। राजा हिमशीतल की सभा में समस्त बौद्ध विद्वानों को जीतकर मैने तारादेवी के घड़े को पैर से फोड़ दिया। सो किसी अहङ्कार या द्वेष की भावना से मैंने ऐसा नहीं किया, किन्तु नैरात्म्यवाद के प्रचार से जनता को नष्ट होते देखकर, करुगाबुद्धि से ही मुझे वैसा करना पड़ा।" इस प्रशस्ति का 'तारा येन विनिर्जिता' आदि श्लोक तो प्रशस्तिकार का ही बनाया हुआ प्रतीत होता है किन्तु चूर्णि से स्पष्ट है कि शेष तीन पद्य पुरातन हैं और प्रशस्तिकार ने उन्हें जनश्रति के आधार पर प्रशस्ति में सङ्कलित कर दिया है। इससे कथाओं में वर्णित अकलङ्क के शास्त्रार्थ की कथा शक सं० 1050 (प्रशस्तिलेखन का समय) से भी पहली प्रमाणित होती है। श्रवणवेलगोला के एक अन्य शिलालेख में भी अकलङ्क का स्मरण इस प्रकार किया है " भट्टाकलकोऽकृत सौगतादिदुर्वाक्यपकैस्सकलङ्कभूतम् / / जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ समन्तादकलकमेव // 21 // " विन्ध्यगिरि पर्वत का शिलालेख न० 105 अर्थात्-"बौद्ध आदि दार्शनिकों के मिथ्या उपदेशरूपी पङ्क से सकलङ्क हुए जगत को मानों अपने नाम को सार्थक बनाने हो के लिये भट्टाकलङ्क ने अकलंक कर दिया / " __कुछ ग्रन्थकारों ने भी अकलंक को बौद्ध विजेता लिखकर स्मरण किया है। महाकवि वादिराज सूरि अपने पार्श्वनाथचरित ( श० सं० 948.) में लिखते हैं "तर्कभूबल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधीः / जगद्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः // " "वे तार्किक अकलंकदेव जयवन्त हों, जिन्होंने जगत की वस्तुओं के अपहर्ता अर्थात् शून्यवादी बौद्धदस्युओं को दण्ड दिया।'' पाण्डवपुराण में तारादेवी के घड़े को पैर से ठुकराने का उल्लेख इस प्रकार किया है... “अकलकोऽकलङ्कः स कलौ कलयतु श्रुतम् / पादेन ताडिता येन मायादेवी घटस्थिता // " .
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy