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________________ न्यायकुमुदचन्द्र शब्दों में बहुत कुछ कहजाना उनकी विशेषता है। उन्होंने अपने ग्रन्थों के भाष्य भी स्वयं लिखे हैं किन्तु वे भी इतने दुरूह और जटिल हैं कि व्याख्याकारों को भी उनका व्याख्यान करने में एक स्वर से अपनी असमर्थता प्रकट करनी पड़ी है। अकलङ्क के व्याख्याकारों में अनन्तवीर्य और स्याद्वादविद्यापति विद्यानन्द ये दो विद्वान बहुत ही पराक्रमी और बुद्धिवैभव. सम्पन्न हुए हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र और वादिराज ने अपने अपने व्याख्यानग्रन्थों में स्पष्ट लिखा है कि अनन्तवीर्य की उक्ति की सहायता से ही वे अकलङ्क को समझने में समर्थ हो सके हैं। न्यायकुमुदचन्द्र के चतुर्थ अध्याय का प्रारम्भ करते हुए प्रभाचन्द्र लिखते हैं " त्रैलोक्योदरवर्तिवस्तुविषयज्ञानप्रभावोदयो। ___ दुष्प्रापोऽप्यकलंकदेवसराणः प्राप्तोऽत्र पुण्योदयात् / स्वभ्यस्तश्च विवेचितश्च शतशः सोऽनन्तवीर्योक्तितो भूयान्मे नयनीतिदत्तमनसस्तबोधसिद्धिप्रदः // " अर्थात्-"त्रिलोकवर्ती वस्तुओं के ज्ञानके प्रभाव से अकलङ्कदेव की सरणि-पद्धति का उदय हुआ है अर्थात् त्रिलोकवर्ती वस्तुओं का ज्ञाता होने के कारण ही अकलङ्कदेव अपनी शैली को जन्म देसके हैं। यह शैली दुष्प्राप्य होने पर भी भाग्योदय से प्राप्त होगई है और अनन्तवीर्य की उक्तियों से बारम्बार मैंने उसका अभ्यास और विवेचन किया है।" आदि / न्यायविनिश्चयविवरण को प्रारम्भ करते हुए वादिराजसूरि लिखते हैं "गूढमर्थमकलंकवाङ्मयागाधभूमिनिहितं तदर्थिनाम् / व्यञ्जयत्यमलमनन्तवीर्यवाक् दीपवर्तिरनिशं पदे पदे // " ____ अर्थात्-“अकलङ्क की वाङ्मयरूपी अगाधभूमि में निक्षिप्त गूढ़ आशय को अनन्तवीर्य के वचनरूपी दीपशिखा रातदिन पद पद पर व्यक्त करती है।" ' ___ अकलङ्कदेव के वाङ्मय की गहनता और अपनी असमर्थता बतलाते हुए वादिराज और भी लिखते हैं 'भूयोभेदनयावगाहगहनं देवस्य यद्वाङ्मयम् कस्तद्विस्तरतो विविच्य वदितुं मन्दः प्रभुर्मादृशः।" अर्थात्-“अकलङ्कदेव की वाणी अनेक भङ्ग और नयों से व्याप्त होने के कारण अति गहन है। मेरे समान अल्पज्ञ प्राणी उसका विस्तार से कथन, और वह भी विवेचनात्मक, कैसे कर सकता है ?" इस प्रकार अनन्तवीर्य की उक्तियों से सहायता लेकर भी वादिराज अकलङ्कदेव के वाङ्मय की गहनता का अनुभवन करते हैं। अब देखिये कि स्वयं अनन्तवीर्य इसके सम्बन्ध में क्या कहते हैंअपनी सिद्धिविनिश्चयटीका का प्रारम्भ करते हुए वे लिखते हैं "देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः / . . . न जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतद् परं भुवि // ".
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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