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________________ प्रस्तावना 29 मुनिवन्दना के लिये जाते थे किन्तु नगर में डुग्गी पीटकर इस सुसंवाद की घोषणा की जाती थी और सब नरनारी अपने अपने परिवार के साथ मुनिराज के पादमूल में धर्मोपदेश श्रवण करके यथाशक्ति व्रत नियमादि ग्रहण करते थे। अतः कया कांश के पुरुषोत्तम मंत्री के स्थान में यदि लघुहव्व राजा अपने पुत्र अकलंक के साथ मुनि के पादमूल में गया हो और वहाँ अकलंक ने भी ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया हो तो कोई अचरज की बात नहीं है / प्रत्युत ऐसी घटना का न घटना ही अचरज की बात हो सकती है। क्योंकि हाजपुत्र होकर विद्याच्यासाङ्ग में लगना और राजोचित भोगविलास को त्यागकर जगह जगह शास्त्रार्थ करते फिरना किसी प्रेरकसामग्री के बिना संभव नहीं है। कहा जा सकता है कि बौद्धधर्म के उत्कर्ष के कारण जैनधर्म के हास को देखकर उन्हें राजकाज छोड़कर इस मार्ग में प्रवृत्त होने की अन्तःप्रेरणा हुई थी। यह कहना हमारी कल्पना का फल होते हुए भी उतना ही सत्य है जितना अकलङ्कदेव का ऐतिहासिक व्यक्ति होना सत्य है / अन्तः प्रेरणा के बिना कोई भी व्यक्ति उस कठिन पथ का पथिक नहीं बन सकता, जिसे अकलङ्कदेव ने अपनाया था और न उसकी लेखनी में वह ओज ही आ सकता है जो अकलङ्क के साहित्य में हम पाते हैं। उनका साहित्य हमें बतलाता है कि जनता में फैलाये गये विषाक्त दुर्विचारों से वे कितने दुखी थे और इसे वे मूढ़ जनता का दुर्भाग्य समझते थे। अपने न्यायविनिश्चय नामक ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए वे लिखते हैं बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितैः माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः // न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः // अर्थात्-"कल्याण के इच्छुक अज्ञजनों के पुरोपार्जित पाप के उदय से, गुणद्वेषी एकान्तवादियों ने न्यायशास्त्र को मलिन कर दिया है। करुणाबुद्धि से प्रेरित होकर हम उस मलिन किये गये न्याय को निर्मल करते हैं।" किन्तु इस अन्तः प्रेरणा को लाहाय्य देने के लिये किसी बाह्य प्रेरक की भी आवश्यकता है। कथाकोश के अनुसार विवाह का प्रसङ्ग उपस्थित होने पर अकल आजन्म ब्रह्मचारी रहने का निश्चय करके विद्याभ्यास में चित्त लगाते हैं और समस्त शाहों का अध्ययन करके बौद्धधर्म पढ़ने के लिये विदेश जाते हैं। और राजाबलीकये के अनुसार काञ्ची में किसी जैन पाठक के न होने के कारण वे बौद्धगुरु के मठ में पढ़ना प्रारम्भ करते हैं। राजावलीकथे में मनि के पास जाने आदि की कोई चचा नहीं है। और वहाँ उस सब की आवश्यकता भी प्रतोत नहीं होती। क्योंकि राजावलोकथे के अकलक ब्राह्मणपुत्र हैं और ब्राह्मणपुत्र का मुख्य कार्य अध्ययन-अध्यापन होता ही है। अतः वे काञ्ची में जेनगुरु का प्रबन्ध न होने से बौद्धमठ में जा पहुँचते हैं। किन्तु राजपुत्र या मंत्रीपुत्र को अपना पैतृक व्यवसाय छोड़कर इस मार्ग में पैर रखने के लिये कोई बाध निमित्त मिलना ही चाहिए / ___ हमारा अनुमान है कि अकलदेव को आरम्भिक शिक्षा भो उसो पद्धति के अनुसार हुई थी जिसका उल्लेख हम इस प्रकरण के प्रारम्भ में कर आये हैं, और यदि कथाकोश में वर्णित मुनि पास जाने आदि को बात सत्य है तो संभव है वे हो मुनि उनके प्रारम्भिक गुरु हों और
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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