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________________ 28 न्यायकुमुदचन्द्र विद्यागुरु भी होते थे। जो विद्याप्रेमी भाई अपनी सन्तान को शिक्षित बनाने का इच्छुक होता था वह अपनी सन्तान को इन वनवासी गुरुओं के सुपुर्द कर देता था / तपस्वी गुरुओं का सहवास और वन का प्रशान्त वातावरण उनमें से अनेक छात्रों को त्यागमार्ग का अनुगामी बना देता था और वयस्क होने पर यदि वे योग्य प्रमाणित हुए तो दीक्षा लेकर गुरु के पट्ट को सुशोभित करते थे। जैनवाङ्मय के भण्डार को अपनी अमूल्य कृतियों से समृद्ध करनेवाले सभी शास्त्रकार प्रायः संन्यास-पथ के पथिक थे और उनके गुरु भी उसी मार्ग के नेता थे। - अकलङ्क की धार्मिकशिक्षा भी इसी परिपाटी के अनुसार हुई प्रतीत होती है / कथाकोश में लिखा है " एक बार अष्टाह्निका पर्व के अवसर पर अकलङ्क के माता पिता उन्हें जैन मुनिराज के निकर ले गये / साथ में उनके लघुभ्राता निकलङ्क भी थे / धर्मोपदेश श्रवण करने के बाद पति-पत्नी ने आठ दिन के लिये ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया और कौतुकवश पुत्रों को भी ब्रह्मचर्यव्रत दिला दिया। जब दोनों भाई वयस्क हुए और पिता ने विवाह रचाने का उपक्रम किया तो दोनों भाइयों ने मुनिराज के सन्मुख दिलाई गई प्रतिज्ञा का स्मरण कराकर विवाह करने से साफ इन्कार कर दिया। पिता ने बहतेरा समझाया कि वह प्रतिज्ञा तो केवल आठ दिन के लिये दिलाई गई थी, किन्तु उन्होंने यही उत्तर दिया कि प्रतिज्ञा दिलाते समय हमसे समय की मर्यादा की कोई चर्चा नहीं की गई थी। सारांश यह है कि उन्होंने विवाह नहीं किया और घर बार का कामकाज छोड़कर विद्याभ्यास में चित्त लगाया / " राजावलीकथे तथा दूसरी कई कथाओं के आधार से, जिनसे हम अपरिचित हैं, राइस सा० ने अकलंकदेव का जीवनवृतान्त लिखा है। वे लिखते हैं-"जिस समय काञ्ची में बौद्धों ने जैनधर्म की प्रगति को रोक दिया था उस समय जिनदास नामक जैन ब्राह्मण के यहाँ उसकी स्त्री जिनमती से अकलङ्क और निकलङ्क नाम के दो पुत्र थे। वहाँ पर उनके सम्प्रदाय का कोई पढ़ानेवाला नहीं था इसलिये इन दोनों बालकों ने गुप्तरीति से भगवदास नाम के बौद्धगुरु से-जिसके मठ में पाँच सौ शिष्य थे-पढ़ना शुरू किया / " - -- अकलंक के ' जन्मस्थान और पितृकुल' को बतलाते हुए हम इन कथाओं को यथार्थता के सम्बन्ध में ऊहापोह कर आये हैं और आगे भी करेंगे। किन्तु कथाकोशकार ने अकलङ्क के बाल्यजीवन की घटना का जो चित्रण किया है अर्थात् पिता के साथ मुनिराज के पास जाना, वहाँ ब्रह्मचर्यव्रत धारण करना और विवाह का प्रसङ्ग उपस्थित होने पर बाल्यकाल में लिये गये व्रत का स्मरण दिलाकर आजन्म ब्रह्मचारी रहने का संकल्प प्रकट करना तथा विद्याभ्यास में चित्त लगाना, वह सब इतना स्वाभाविक और सत्य प्रतीत होता है कि अकलंक के जीवन के साथ उसका सम्बन्ध अस्वीकार करने पर भी कोई यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि अकलंकसदृश दृढ़ अध्यवसायी, प्रकाण्डपण्डित और कर्मठ व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार की घटना नहीं घट सकती। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जो व्यक्ति महापुरुष हुए उनके जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना अवश्य घटी जिसने उन्हें महापुरुष के पद पर पहुंचा दिया। जैन श्रावक, राजा हो या रंक, नगर के निकट मुनि के आने का समाचार सुनकर उनकी वन्दना किये बिना नहीं रह सकता। जैन कथानकों से स्पष्ट है कि नगर प्रान्त में किसी मुनि या संघ के पधारने का समाचार सुनकर श्रेणिक जैसे प्रभावशाली राजा न केवल स्वयं सपरिवार - यह वृत्तान्त जनहितैषी, भा० 11, अंक 7.8 में प्रकाशित भट्टाकलंक' नामक लेख से दिया है /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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