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________________ प्रस्तावना उसकी वास्तविकता के सम्बन्ध में संदेह उत्पन्न करती है। तथापि कथाओं के साथ उसकी वास्तविकता की तुलना करने पर कथाओं की अपेक्षा उसे अग्रस्थान देना ही होगा। ___ अकलङ्क दक्षिणभारत के निवासी थे इसमें तो कोई सन्देह नहीं। कथाओं में दिये गये नगरों के नामों से भी इसका समर्थन होता है / लघुव्व नाम दक्षिण भारत के अनुरूप है क्योंकि वहाँ इस प्रकार के नाम पाये जाते हैं यथा-चिक्क, नन्न आदि / किन्तु पुरुषोत्तम नाम उत्तरभारत की शैली को सूचित करता है / राजवलीकथे का जिनदास नाम ब्राह्मण का जैनत्व सिद्ध करने के लिये कल्पित किया गया प्रतीत होता है / और उसकी स्त्री का जिनमती नाम उसकी काल्पनिकता का रहस्य प्रकट कर देता है / अतः अकलङ्क न तो पुरुषोत्तम मंत्री के पुत्र थे और न जिनदास ब्राह्मण के, किन्तु वे राजपुत्र थे और उनके पिता का नाम लघुहव्व था / ___ कथाकोश को मान्यखेट नगर एक समय राष्ट्रकूदवंशी राजाओं की राजधानी था और राष्ट्रकूटवंशी राजाओं में से कृष्णराज प्रथम शुभतुंग नाम से प्रसिद्ध था तथा उसके भतीजे दन्तिदुर्ग का अपरनाम साहसतुङ्ग था। मल्लिषेणप्रशस्ति के एक श्लोक से प्रकट है कि अकलङ्क साहसतुङ्ग की सभा में गये थे। संभवतः इसी आधार पर कथाकोश के कर्ता ने उन्हें मान्यखेट का अधिवासी मान लिया है। किन्तु उस समय के इतिहास में मान्यखेट का कोई पता नहीं चलता। दैन्तिदुर्ग के वंशज महाराज अमोघवर्ष ने शक सं० 737 ( सन् 815) में अपनी राजधानी मान्यखेट में प्रतिष्ठित की थी। इसी समय से यह नगर इतिहास में प्रसिद्ध हुआ है। अतः कथाकोश का उल्लेख किसी भी तरह उचित प्रतीत नहीं होता। ___ राजावलिकथे का काञ्ची नामक नगर इतिहास में प्रसिद्ध है। यह द्रविणदेश की राजधानी था। प्राचीन काल से यह विद्या का केन्द्र रहा है। इसे दक्षिणभारत की काशो कहा जाता है। एक समय स्वामी समन्तभद्र ने यहाँ अपनी विजयदुन्दुभि बजाई थी। पल्लववंश के समय में यहाँ बौद्धधर्म का प्रचार बड़े जोरों पर था, क्योंकि पल्लवराजा बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। बौद्धमत के प्रख्यात नैयायिक दिङ्नाग और धर्मकीर्ति काञ्ची के आसपास के ही निवासी थे और उन्होंने वहीं पर बौद्धदर्शन का अध्ययन किया था। इन सब बातों पर दृष्टि डालते हुए हमारा अनुमान है कि अकलंक के पिता लघुहव्व द्रविणदेश के ही किसी ताल्लुके के स्वामी होंगे और अकलंक का जन्म काञ्ची के निकट किसी ऐसे प्रदेश में हुआ होगा जहाँ पल्लवराज तथा उनके धर्मानुयायिओं के आतंक की चर्चा और प्रभाव हो। क्योंकि इस प्रकार के वातावरण में उत्पन्न होने से ही अकलङ्क के जीवन में वे सब बातें घट सकती हैं जिनका समर्थन न केवल कथाओं से किन्तु शिलालेखों और ग्रन्थकारों की श्रद्धाजलियों से भी होता है / बाल्यकाल और शिक्षा जैनराजाओं या दानियों ने जैनधर्म की शिक्षा देने के लिये बौद्धों की तरह स्थान स्थान पर विद्यापीठ की स्थापना की हो, इतिहास में इस प्रकार का कोई सङ्केत नहीं मिलता। जैनों के आचार्य संसार से विरक्त साधु होते थे। वे ज्ञान और चारित्र के भण्डार होते थे। प्रायः नगरों के आसपास जंगलों में वे निवास करते थे। वे जैनों के धर्मगुरु होने के साथ ही साथ 1 देखो, 'महाकवि पुष्पदन्त के समय पर विचार ' शीर्षक प्रो. हीरालाल का लेख / जै० सा. संशो०, खंड 2, अङ्क 3, पृ० 147 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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