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________________ 25 न्यायकुमुदचन्द्र ____7 अकलंकदेव-ई० 1604 में इन्होंने कर्नाटक शब्दानुशासन की रचना की थी। ये दक्षिण कनाड़ा के हाडुवल्ली मठ के जैनाचार्य के शिष्य थे। 8 अकलंक कवि-व्रतफलवर्णन के कर्ता। 9 अकलंकदेव-चैत्यवन्दनादिसूत्र, साधुश्राद्धप्रतिक्रमण, पदपर्यायमञ्जरी के रचयिता। 10 अकलंक-विद्याविनोद के कर्ता, इन्होंने अकलंक भट्टारक, वीरसेन, पूज्यपाद और धमकीर्ति महामुनि का उल्लेख किया है। 11 अकलंक-अकलंकप्रतिष्ठापाठ के रचयिता, यह ग्रन्थ 16 वीं अथवा 17 वीं शताब्दी का बना है। संभव है इनमें से कोई कोई अकलंक एक ही व्यक्ति हों, किन्तु वर्तमान परिस्थिति में हम उनका ऐक्य प्रमाणित कर सकने में असमर्थ हैं। प्रसिद्ध आद्य अकलंक को कुछ ग्रन्थकारों ने केवल 'देव' शब्द से स्मरण किया है , जैसा कि आगे मालूम होगा। तथा 'भट्ट' संभवतः उनकी उपाधि थी, जो उस समय के प्रकाण्ड विद्वानों के नाम के साथ प्रयुक्त की जाती थी, जैसे भट्ट कुमारिल, भट्ट प्रभाकर आदि। जन्मभूमि और पितृकुल प्रभागेन्द्र के गद्य कथाकोश ब्रह्मचारी नेमिदत्त के कथाकोश और कनड़ी भाषा के 'राजावलीकथे' नामक ग्रन्थ में अकलंक की जीवनकथा मिलती है। __कथाकोश के अनुसार अकलंक को जन्मभूमि मान्यखेट थी और वहाँ के राजा शुभतुंग के मंत्री पुरुषोत्तम के वे पुत्र थे। किन्तु राजावलीकथे के अनुसार वे काञ्ची के जिनदास नामक ब्राह्मण के पुत्र थे। अकलंक के तत्त्वार्थराजवार्तिक नामक ग्रन्थ के प्रथम अध्याय के अन्त में एक श्लोक पाया जाता है। उसमें उन्हें लघुहव्व नृपति का पुत्र बतलाया है / वह श्लोक निम्न प्रकार है जीयाच्चिरमकलङ्कब्रह्मा लघुहव्वनृपतिवरतनयः / ' अनवरतनिखिलजननुतविद्यः प्रशस्तजन हृद्यः // यह श्लोक स्वयं प्रन्थकार का बनाया हुआ तो नहीं जान पड़ता। यद्यपि इसकी शब्दरचना राजवार्तिक की शब्दरचना से मेल खाती है और उसमें अकलङ्क के कवित्व की छाया भी दृष्टिगोचर होती है, किन्तु उनके अन्य किसी भी ग्रन्थ में इस प्रकार का उल्लेख नहीं पाया जाता, तथा उक्त श्लोक ग्रन्थ के अन्त में न होकर उसके प्रथम परिच्छेद के अन्त में है, जब कि अन्य किसी भी परिच्छेद के अन्त में कोई श्लोक नहीं है। अतः श्लोक को स्थिति 1 दोनों कथाकोशों की कथाओं में कोई अन्तर नहीं है ( देखो समन्तभद्र पृ० 105 का नोट ) नेमिदत्त ने प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोश को ही पद्य में परिवर्तित किया है। जैसा कि वह स्वयं लिखते हैं देवेन्द्रचन्द्रार्कसमर्चितेन तेन प्रभाचन्द्रमुनीश्वरेण / अनुग्रहार्थ रचितं सुवाक्यैराराधनासारकथाप्रबन्धः // 6 // तेन क्रमेणैव मया स्वशक्त्या श्लोकैः प्रसिद्धश्च निगद्यते सः / मार्गेण किं भानुकरप्रकाशे। स्वलीलया गच्छति सर्वलोकः // 7 // नेमिदत्तकृत कथाकोश
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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