SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना अनुयायी भट्टाकलंक, दोनों का बोधक है। स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन के पश्चात् इसी प्रखर तार्किक ने अपनी प्रभावक कृतियों से जैनवाड य के कोष को समृद्ध बनाया था। वे भारतीय साहित्यगगन में चमकनेवाले उन इने गिने नक्षत्रों में से थे जिनकी आलोकछटा से भारतमाता का मस्तक आज भी आलोकित है। वे सब कुछ थे किन्तु उनकी जीवनगाथा गाने के लिये आज हमारे पास कुछ भी नहीं है, जो कुछ है वह 'न कुछ' के बराबर है। उनकी अमरकृतियाँ अपनी गोद में उनका अमर नाम लिये जीवित हैं. वे अपने कर्ता के बारे में जो कुछ वतला सकती हैं वह है उसका नाम. व्यक्तित्व और प्रकाण्ड पाण्डित्य / उनमें से एक आध कुछ अधिक बतलाने का साहस भी करती है तो उसका पता लगाने की सामग्री हमारे पास नहीं है / शिलालेख और ग्रन्थकार भी उनकी गुणगरिमा का गान करके ही रह जाते हैं। उन के पितृकुल गुरुकुल जन्मक्षेत्र और कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में वे मूक हैं। शेष रह जाती हैं कथाकारों की श्रद्धाञ्जलियाँ, किन्तु शताब्दियों का अन्तराल, कथाकारों की कल्पना, अन्य स्थलों से उनका समर्थन न होना आदि अनेक बातें एक इतिहासज्ञ को उनकी सत्यता में विश्वास न करने के लिये प्रेरित करती हैं। इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक आचार्य हो गये हैं। इन सब उलझनों के मध्य में से प्रकृत समस्या को सुलझाना और ऐतिहासिक तथ्य तक पहुँच जाना कितना दुष्कर है यह कहने की आवश्यकता नहीं है। तथापि प्रयत्र करना मनुष्य का कर्तव्य है यह विचार कर हम इस कार्य में प्रवृत्त होते हैं प्रकलंक नाम के अन्य विद्वान् नामसाम्य होने के कारण बहुत से महानुभाव समाननामा विभिन्न ग्रन्थकारों की कृतियों को एक ही की कृति समझ बैठते हैं। तथा कुछ अन्धकार भी अपने नाम का लाभ उठाकर अपने नामराशि किसी प्रसिद्ध विद्वान् के नाम पर अपने ग्रन्थों का नाम रखकर वैसा करने का प्रयत्न करते हैं, अतः प्रसिद्ध पुरुष की ख्याति को सुरक्षित रखने के लिये यह आवश्यक है कि पाठक उस नाम के अन्य विद्वानों से भी परिचित हों। हमारे चरितनायक अकलंकदेव के पश्चात अकलंक नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं और उनमें से कुछ ने कुछ रचनाएँ भी की हैं। अब तक ऐसे जितने अकलकों का पता लग सका है उनकी तालिको नीचे दी जाती है। . 1 अकलंक विद्य-इनके गुरु देवकीर्ति थे। समय, विक्रम की १२वीं शताब्दी। इनका उल्लेख श्रवणवेल. शिला में मिलता है। 2 अकलंक पण्डित-श्रवण शि० नं० 43 में इनका उल्लेख है। यह शिलालेख ई० 1100 के लगभग का समझा जाता है। ____3 अकलंक भट्टारक-यह जाति के पोरवाड़ थे / ये अकलंकसंहिता और श्रावकप्रायश्चित्त (ई. 1311 में रचित ) के कर्ता थे। 4 अकलंक-परमागमसार के रचयिता। 5 अकलंक-विवेकमञ्जरीवृत्ति ( ई० 1192 ) के रचयिता / 6 भद्र अकलंक---विद्यानुवाद नामक मंत्रशास्त्र के रचयिता। 15. जुगलकिशोरजी मुख्तार द्वारा प्रेषित तालिका तथा मद्रास विश्वविद्यालय के द्वारा प्रकाशित 'नवीन सूचीपत्रों का सूचीपत्र' के आधार पर यह तालिका दी गई है।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy