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________________ 30 न्यायकुमुदचन्द्र उन्होंने अपने सुयोग्य शिष्य में जिनशासन का अभ्युदय कर सकने की क्षमता देखकर उसे इस ओर प्रेरित किया हो। अस्तु, जो कुछ हो। अकलङ्क एक राजपुत्र होते हुए भी बहुत बड़े तार्किक और वादी थे और उनका जीवन विद्याव्यासङ्ग में बीता था अतः उनकी शिक्षादीक्षा ऐसे वातावरण में हुई होगी जिसने उन्हें क्षत्रियोचित शस्त्रवीरता का मार्ग छुड़ाकर ब्राह्मणोचित शास्त्रवीरता के मार्ग का अनुगामी बनाया। विद्यार्थीजीवन और संकट अकलंक की जिन कथाओं का उल्लेख हम पहले कर आये हैं उन सबमें थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ अकलंक का अपने लघुभ्राता निकलंक के साथ अपने को छिपाकर बौद्धमठ में विद्याध्ययन करना, बौद्धगुरु की पुस्तक में जैनसिद्धान्त के किसी रहस्य या वाक्य को लिख देना, बौद्धगुरु को किसी जैनछात्र के छिपकर विद्याध्ययन करने का संदेह होना, छात्र को खोज निकालने के लिये कई उपायों का प्रयोग करना, अकलंक और निकलंक का पकड़े जाना, आत्मरक्षा के लिये रात्रि के समय कारागार से निकलकर भागना, अकलंक का प्राण बचाना किन्त निकलंक का बौद्धसैनिकों के द्वारा वध किया जाना आदि बातों का वर्णन मिलता है। कथाकोश में लिखा है-“मान्यखेट नगर में किसी बौद्धविद्वान् के न होने के कारण दोनों भाईयों ने बौद्धधर्म का अध्ययन करने के लिये विदेशयात्रा की और अज्ञ छात्र का रूप धरकर बौद्धाचार्य के पास अध्ययन करने लगे। जब गुरु अपने बौद्धशिष्यों को बौद्धशास्त्र पढ़ाते थे तो वे दोनों छिपकर सब सुनते रहते थे। एक दिन गुरुजी दिङ्नाग के किसी ग्रन्थ को पढ़ा रहे थे। दिङ्नाग ने अनेकान्त का खण्डन करने के लिये पूर्वपक्ष में सप्तभंगी का निरूपण किया था। अशुद्ध होने के कारण बौद्धगुरु उसे समझ नहीं सके और पढ़ाना बन्द करके चले गये / अकलंकदेव ने पाठ शुद्ध कर दिया। पुनः पुस्तक खोलने पर गुरु ने शुद्ध पाठ लिखा देखा और अनुमान किया कि उनके मठ में जैनशास्त्रों का ज्ञाता कोई जैन ब्रौद्धसाधु का वेश बनाकर अध्ययन करता है। उन्होंने खोज करना प्रारम्भ किया। एक दिन उन्होंने एक जैनमूर्ति मँगाकर सब शिष्यों को उसे लाँघने की आज्ञा दी। अकलंक तुरन्त ताड़ गये और मूर्ति पर एक धागा डालकर उसे तुरन्त उलंघ गये। इस उपाय में सफलता न मिलने पर आचार्य ने दूसरा उपाय खोज निकाला। एक दिन रात्रि के समय उन्होंने प्रत्येक छात्र की शय्या के पास एक एक मनुष्य को खड़ा कर दिया और ऊपर से बर्तनों का एक बोरा जमीन पर जोर से पटक दिया / भयङ्कर शब्द सुनकर सब छात्र जाग पड़े। पञ्चनमस्कारमंत्र का स्मरण करते हुए अकलंक निकलंक भी जागे और समीप में खड़े मनुष्यों के द्वारा पकड़ लिये गये। दोनों भाई पकड़कर महल के सातवें खन पर रख दिये गये। अपने उद्देश्य को पूरा किये बिना संसार से विदा होने का समय निकट जान, छोटा भाई निकलंक बहुत दुःखी हुआ किन्तु अकलंक ने प्राणरक्षा का एक उपाय खोज निकाला। एक छाते की सहायता से, जो वहाँ पड़ा हुआ था, दोनों भाई महल से कूद पड़े और वहाँ से भाग दिये। आधीरात के समय मारने के लिये जब उनकी खोज की गई तो वे नहीं मिले। तब बहुत से सवार उनके पीछे दौड़ा दिये गये। निकलंक ने घोड़ों की टापों का शब्द सुनकर जान लिया कि उन्हें मारने के लिये चर आरहे हैं। उसने अपने भाई से कहा कि आप पण्डित और चतुर व्यक्ति हैं, आपके जीवित रहने से जिनशासन का महान् उपकार होगा, अतः आप इस समीपवर्ती तालाब में
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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