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________________ 18 न्यायकुमुदचन्द्र का० ३४-में बतलाया है कि जैसे बौद्धमत में एक ज्ञान अपने अनेक आकारों के साथ प्रतिभासमान होता है उसी प्रकार जीवादि वस्तु अपने अनेक गुणों और पर्यायों के साथ सर्वदा प्रतिभासमान होती है। यहाँ क्षणपरम्परा में अनुस्यूत एक द्रव्य को न माननेवाले बौद्धों के प्रति ऊर्ध्वता सामान्य की सिद्धि की गई है और विवृति में भी उसी का समर्थन किया है / ---का० ३५–में कहा है कि वस्तु का लक्षण अर्थक्रिया है, किन्तु यह लक्षण क्षणिकैकान्त में नहीं रहता, क्योंकि यदि कारण के रहते हुए ही कार्य की उत्पत्ति होती है तो कार्यकारणभाव नहीं बन सकता। विवृति में भी इसी के सम्बन्ध में विशेष कहा है। का० ३६-में कहा है कि कारण के रहते हुए यदि कार्य की उत्पत्ति न हो सकती तो क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया का सिद्ध करना उचित होता, किन्तु ऐसा नहीं है, कारण के कथश्चित् रहते हुए ही कार्य की उत्पत्ति होती है। विवृति में व्यतिरेकरूप से कारिका का व्याख्यान करते हुए क्षणिकैकान्त में कार्योत्पत्ति का निषेध किया है। .... का० ३७-और उसकी विवृति में बौद्धों के क्षणिक स्वलक्षण और ज्ञानक्षण का उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि एक वस्तु अनेक कार्य कर सकती है और अनेक धर्मों में व्याप्त होकर रह सकती है। का० ३८-में संग्रहनय और संग्रहाभास का विषय बतलाया है। विवृति में कहा है कि 'सन्मात्र ही तत्त्व है। यह संग्रहनय का अभिप्राय है। किन्तु इस अभिप्राय में भेददृष्टि का निषेध नहीं है / यदि ऐसा होता तो संग्रहनय के विषय और ब्रह्मवाद में कोई अन्तर ही नहीं होता। _ का० ३९-में नैगम और नैगमाभास का स्वरूप बतलाया है। विवृति में कहा है कि गुण गुणी, या धर्म धर्मी में से जब एक का कथन किया जाता है तो दूसरा गौण हो जाता है। यह नैगमनय का अभिप्राय है। किन्तु जहाँ गुण गुणी, अवयव अवयवी, क्रिया कारक, आदि को सर्वथा भिन्न माना जाता है, वह नैगमाभास है। .. का० ४०–में योगों के मत का निराकरण करते हुए कहा है कि सत्ता का सम्बन्ध होने से पहले वस्तु स्वयं सत् है या असत् ? यदि सत् है तो सत्ता का सम्बन्ध मानने की आवश्यकता ही नहीं रहती। यदि असत् है तो खरविषाण की तरह उसका सत्ता के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। विवृति में कारिका का आशय समझाते हुए, योगों की तरह सांख्य की मान्यता को भी नैगमाभास में सम्मिलित किया है। का० 41 –में कहा है कि प्रमाण की व्यवस्था व्यवहाराधीन है। किन्तु वह व्यवहार संग्रहाभास और नैगमाभास में मिथ्या है। अतः जब व्यवहार ही मिथ्या है तो मिथ्या व्यवहार के आधार पर निर्धारित प्रमाणव्यवस्था भी मिथ्या ही होगी, और प्रमाणव्यवस्था के मिध्या होने पर स्वपक्ष और विपक्ष की सत्यता और असत्यता का निर्णय नहीं किया जा सकता, अतः या तो दोनों ही सत्य होंगे या दोनों ही असत्य / विवृति में संग्रहाभास और नैगमाभास में प्रमाण की प्रवृत्ति का निषेध किया है। _____ का० ४२-में व्यवहारनय और तदाभास की चर्चा करते हुए बाह्य अर्थ के अस्तित्व को व्यवहारनय और विज्ञप्तिवाद तथा शून्यवाद को तदाभास बतलाया है। विवृति में कारिका के आशय को स्पष्ट किया है। का० ४३–में बतलाया है कि ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमान पर्याय को विषय करता है। किन्तु बौद्धकल्पित चित्रज्ञान ऋजुसूत्रनय का विषय नहीं है क्योंकि वह वास्तव में एक नहीं है
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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