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________________ प्रस्तावना 17 स्थित नहीं होता। किन्तु यदि उनमें से कोई ज्ञान क्वचित् कदाचित् वस्तु का ठीक ठीक प्रतिभास नहीं करा सकता तो उसे प्रमाणाभास समझना चाहिए। विवृति में भी कारिका के मन्तव्य को स्पष्ट किया है। न्या० कु० में कारिका 22 से 25 तक का व्याख्यानमात्र है। का० २६–में कहा है कि श्रतज्ञान भी प्रमाण है। विवृति में बौद्धों के मत का खण्डन करते हुए लिखा है कि शाब्दज्ञान से बाह्य अर्थ का बोध होता है। न्या० कु. में शाब्दज्ञान को अनुमान प्रमाण कहने वाले वादी के मत का खण्डन किया है। शाब्दज्ञान को अप्रमाण मानने वाले वादियों का निरसन करके उसे प्रमाण सिद्ध किया है। शब्द और अर्थ के नित्य सम्बन्ध की आलोचना करके उनका कथञ्चित् नित्य सम्बन्ध बतलाया है। बौद्धों के अपोहवाद का खण्डन करके केवल सामान्य को शब्द का विषय माननेवालों का निरसन किया है। और विधि नियोग भावना आदि को शब्द का अर्थ माननेवाले वेदान्ती भाट्ट आदि के मत की विस्तार से आलोचना की है। ___ का० २७में कहा है कि क्वचित् कदाचित् श्रुतज्ञान को विसंवादी देखकर यदि उसे सर्वत्र सर्वदा मिथ्या ही माना जाएगा तो प्रत्यक्ष और अनुमान को भी सर्वत्र मिथ्या मानना होगा, क्योंकि कभी कभी ये भी विसंवादी हो जाते हैं। विवृति में कारिका के मन्तव्य का समर्थन किया है। ___का० २८–में कहा है कि यदि आप्तपुरुष के वचन और हेतुप्रयोग से बाह्य अर्थ का निश्चय नहीं मानते हो तो सत्य और असत्य वचनों की तथा साधन और साधनाभास की व्यवस्था किस प्रकार हो सकेगी? विवृति में उदाहरण देकर कारिका के मन्तव्य को स्पष्ट किया है। का० २९-में बतलाया है कि यदि पुरुषों के मनोगत भावों में और वचनों में अन्तर देखकर वचन को अर्थ का व्यभिचारी कहा जाता है तो विजातीय कारण से कार्योत्पत्ति की संभावना मानकर विशिष्ट कार्य से विशिष्ट कारण का अनुमान नहीं किया जा सकता। विवृति में, बौद्धों के स्वभाव और कार्य हेतु में व्यभिचार की संभावना बतलाकर कहा है कि यदि अन्यथानुपपत्ति के बल पर स्वभाव और कार्य हेतु से परोक्ष अर्थ की प्रतिपत्ति स्वीकार करते हो तो शाब्दज्ञान से भी अर्थ की प्रतिपत्ति माननी चाहिए / अतः श्रुतज्ञान प्रमाण है। न्या० कु. में 27, 28 और 29 का० का व्याख्यान मात्र है। पञ्चम परिच्छेद का० ३०–में नय और दुर्नय की परिभाषा की है। विवृति में नय के दो भेद किये हैंद्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक / द्रव्यार्थिक अभेद अर्थात् सत्सामान्य को विषय करता है। का० ३१–में सत्सामान्य की व्याख्या करते हुए, जीव अजीव आदि समस्त भेदप्रभेदों को सत् में अन्तर्भूत बतलाया है। और उसके समर्थन में चित्रज्ञान और जीव का दृष्टान्त दिया है। विवृति में इसी का स्पष्टीकरण किया है। _____ का० ३२–में कहा है कि संग्रहनय शुद्धद्रव्य अर्थात् सत्सामान्य को विषय करता है। विवृति में कारिका के आशय को समझाते हुए लिखा है कि कोई भी वस्तु सर्वथा असत् नहीं है तथा कोई भी ज्ञान सत् को जाने बिना वस्तु को नहीं जान सकता। ___ का० ३३–में विशेषवादी बौद्ध को उत्तर देते हुए कहा है कि प्रत्यक्ष में बौद्धकल्पित निरं. शक्षणों की प्रतीति नहीं होती। विवृति में भी प्रकारान्तर से इसी बात का समर्थन किया है।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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