________________ न्यायकुमुदचन्द्र ___ का० १८–में कहा है कि बौद्धमत में विकल्पबुद्धि हो सिद्ध नहीं होती। विवृति में उसी का स्पष्टीकरण करते हुए, सविकल्पकबुद्धि का स्वतः और परतः निर्णय मानने में दोष बतलाये हैं / न्या० कु० में 16, 17 और 18 कारिका का व्याख्यानमात्र किया है / का० १९–में नैयायिक के उपमान प्रमाण की आलोचना करते हुए कहा है-यदि सादृश्यज्ञान को उपमान नामका प्रमाण मानते हो तो वैसादृश्य ज्ञान को किस प्रमाण के नाम से पुकारोगे ? विवृति में नैयायिकों की प्रमाणसंख्या का विघटन किया है। मीमांसक और नैयायिक के उपमान प्रमाण की परिभाषा में थोड़ा सा अन्तर है। अकलंकदेव ने केवल नैयायिक की परिभाषा का उल्लेख किया है किन्तु न्या० कु. में नैयायिक और मीमांसक, दोनों के लक्षणों की आलोचना की है और प्रमाणित किया है कि सादृश्यप्रत्यभिज्ञान से अतिरिक्त उपमाननाम का कोई प्रमाण नहीं है / नैयायिक के मत की आलोचना करते हुए प्रभाचन्द्र ने वृद्धनैयायिकों के एक मत का उल्लेख किया है, जो आप्त पुरुष के 'गौ के समान गवय होता है' इस सादृश्यप्रतिपादक वाक्य को ही उपमानप्रमाण कहते हैं। प्रभाचन्द्र ने इसे आगमप्रमाण बतलाया है। का० २०–में कहा है कि यदि वाच्यवाचक सम्बन्ध का ज्ञान प्रमाण नहीं है तो सादृश्य सम्बन्ध का ज्ञान उपमान भी प्रमाण नहीं हो सकता। विवृति में उसी को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जैसे किसी मनुष्य ने किसी आप्तपुरुष से जाना कि अमुक नगर से अमुक दिशा में अमुक नाम का ग्राम है और उसकी अमुक अमुक पहचान है। मनुष्य उस ग्राम के निकट पहुँच कर आप्त पुरुष के वचनों को स्मरण करके जान जाता है कि अमुक नाम का ग्राम यही है। इस प्रकार के संज्ञा और संज्ञी के सङ्कलनरूप ज्ञान को उपमान की तरह पृथक् प्रमाणान्तर मानना चाहिए / न्या० कु० में व्याख्यानमात्र किया है। का० २१–में स्मृति और प्रत्यक्ष के सङ्कलनात्मक ज्ञान के बहुत से भेद बतलाकर उन्हें उपमान से पृथक् प्रमाणान्तर आपादित किया है। विवृति में कारिका के मन्तव्य को स्पष्ट करके अर्थापत्ति का अनुमान में अन्तर्भाव किया है / न्या० कु० में अर्थापत्ति प्रमाण के सम्बन्ध में कुमारिल के मत की विस्तार से आलोचना की है। चतुर्थपरिच्छेद का० २२–में लिखा है कि तैमिरिक रोगी का ज्ञान भी कथश्चित् प्रत्यक्षाभास है। विवृति में उसी को स्पष्ट करते हुए कहा है कि तैमिरिक रोगी को दो चंद्रमा दिखाई देते हैं, अतः उनका ज्ञान केवल संख्या के सम्बन्ध में ही विसम्वादी है, चंद्रमा के सम्बन्ध में नहीं। अतः द्विचन्द्रज्ञान को सर्वथा अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। ___ का० २३–में सविकल्पकज्ञान को प्रमाण और विवृति में निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाणाभास बतलाया है। का० २४–में प्रत्यक्षबुद्धि में कल्पना या विकल्प की प्रतीति नहीं होती अतः उसे निर्विकल्पक ही मानना चाहिए' बौद्ध के इस मत की आलोचना की है। विवृति में भी उसी बात को समझाया है। .. का० २५–में प्रमाण और प्रमाणाभास की व्यवस्था करते हुए बतलाया है कि प्रत्यक्ष स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि पूर्वोक्त ज्ञान प्रमाण हैं क्योंकि उनसे व्यवहार में कोई विसंवाद उप