________________ प्रस्तावना न्या० कु० में विवृति का व्याख्यान करते हुए स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क को पृथक् प्रमाण सिद्ध किया है। * का० ११-के उत्तरार्द्ध और 12 के पूर्वार्द्ध में बतलाया है कि साध्य और साधन के अविनाभावसम्बन्ध को न तो निर्विकल्पकप्रत्यक्ष जान सकता है और न सविकल्पक, अतः उसके जानने के लिये तर्क नाम का प्रमाणान्तर मानना चाहिए। विवृति में भी इसी का समर्थन किया है। न्या० कु० में योग और बौद्धों के इस मत की, कि प्रत्यक्ष के अनन्तर होने वाले सविकल्पक ज्ञान से व्याप्ति का ग्रहण हो सकता है, विस्तार से आलोचना की है और सिद्ध किया है कि इन्द्रिय मानस और योगिप्रत्यक्ष व्याप्ति को ग्रहण करने में असमर्थ हैं। का० १२-के उत्तरार्द्ध और 13 के पूर्वार्द्ध में अनुमान प्रमाण का लक्षण और उसका फल बतलाया है / विवृति में विधिसाधक हेतु के केवल दो ही भेद-स्वभाव और कार्यमानने वाले बौद्धों का खण्डन किया है। न्या० कु. में बौद्धों की आलोचना करते हुए, अनुमान में पक्षप्रयोग को आवश्यक बतलाया है। फिर त्रैरूप्य और पाञ्चरूप्य को हेतु का लक्षण मानने वाले बौद्ध और यौगों की मान्यता का निरसन करके विवृति के मन्तव्य को पुष्ट किया है। का० १३–के उत्तरार्द्ध और उसकी विवृति में जलचन्द्र का दृष्टान्त देकर कारणहेतु का समर्थन किया है / कुमारिल का मत है कि जल आदि स्वच्छ वस्तुओं में हमें मुख आदि का जो प्रतिबिम्ब दिखाई देता है वह प्रतिबिम्ब नहीं है, किन्तु हमारी नयनरश्मियां जल से टकराकर लौटती हुई हमारे ही मुख को देखती हैं, उसे हम भ्रान्ति से जलगत बिम्ब का दर्शन समझ लेते हैं / न्या० कु. में इस मत की आलोचना की है और प्रमाणित किया है कि स्वच्छ वस्तुओं में दूसरी वस्तुओं का प्रतिबिम्ब पड़ सकता है। .. का० १४-में पूर्वचर हेतु का समर्थन किया है। न्या० कु. में विवति का व्याख्यान करते हुए लिखा है कि बौद्धों के अनुमान के तीन प्रकार और नैयायिकों के पांच प्रकार का नियम नहीं बनता। तथा सांख्य के अनुमान के सात प्रकारों का स्वरूप समझाकर उनकी संख्या के नियम को भी पूर्वचर उत्तरचर आदि हेतुओं के आधिक्य से विघटित किया है। ___ का० १५-में बतलाया है कि अदृश्यानुपलब्धि से भी वस्तु के अभाव का ज्ञान हो सकता है। विवति में उसी को स्पष्ट किया है। न्या० कु० में, अभाव को जानने के लिये अभाव नाम का एक पृथक् प्रमाण मानने वाले मीमांसकों के मत की विस्तार से आलोचना की है। और सिद्ध किया है कि अभाव भी वस्तु का ही धर्म है अतः प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ही उसका ज्ञान हो सकता है। ____ का० १६-में बौद्धों को उत्तर देते हुए लिखा है कि सविकल्पकप्रत्यक्ष से क्षणभङ्गता की प्रतीति नहीं होती, उससे तो स्थिर स्थूलाकार पदार्थ की ही प्रतीति होती है। विवृति में भी कारिकोक्त मन्तव्य का समर्थन किया है। इस प्रकार बौद्धों के अनुपलब्धिहेतु की अलोचना करने के बाद। का. 17 में उनके स्वभाव और कार्यहेतु की आलोचना की है। विवृति में भी उसी का स्पष्टीकरण करते हुए, तर्कप्रमाण के बिना अनुमान-अनुमेय तथा कार्य-कारण व्यवहार की अनुपपति बतलाई है।