________________ न्यायकुमुदचन्द्र स्वसंवेदन ज्ञान के भी इतने ही भेद माने हैं। तथा प्रमाण और फल की व्यवस्था करते हुए पूर्व पूर्व ज्ञान को प्रमाण और उत्तर उत्तर ज्ञान को उनका फल बतलाया है विवृति में बौद्धाभिमत प्रमाण-फलव्यवस्था का खण्डन करके स्वमत का समर्थन किया है। न्या० कु. में कारिका के 'स्वसंविदाम् ' पद के आधार पर अस्वसंवेदिज्ञानवादी मीमांसक और सांख्य के तथा ज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानवादी नैयायिकों के मत की आलोचना करके ज्ञान को स्वसंवेदी सिद्ध किया है। तथा स्वतः प्रामाण्यवाद की आलोचना करके अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशा में परतः प्रामाण्य की स्थापना की है। स्वतः प्रामाण्यवाद की आलोचना मूलकार से सम्बन्ध नहीं रखती। अन्त में विवृति का व्याख्यान करते हुए प्रमाण और फल के सर्वथा भेदवाद का निरसन करके कथञ्चित् तादात्म्य का समर्थन किया है। . द्वितीय परिच्छेद का० ७–के उत्तरार्द्ध में द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को प्रमाण का विषय बतलाया है। विवृति में उसी का समर्थन करते हुए कहा है कि अनेकान्त से ही वस्तु की सिद्धि हो सकती है, भेदैकान्त या अभेदैकान्त से नहीं, तथा बौद्धों का स्वलक्षण और अद्वैतवादियों का सामान्य प्रमाण का विषय नहीं हो सकते / न्या० कु० में विवृति में प्रतिपादित भेदैकान्त और अभेदैकान्त की अनुपलब्धि के आधार पर वैशेषिक के षट्पदार्थवाद, नैयायिक के षोडशपदार्थवाद, सांख्य के पञ्चविंशतितत्त्ववाद और चार्वाक के भूतचैतन्यवाद का विस्तार से खण्डन किया है। अन्त में द्रव्य और पर्याय में सर्वथा भेद मानने वाले यौगों का निरसन करके कथञ्चित् भेदाभेद की स्थापना की है। का०८-में बतलाया है कि नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्त में अर्थक्रिया नहीं हो सकती। विवृति में वस्तु की उत्पत्ति को ही उसकी अर्थक्रिया कहने वाले बौद्धों का उपहास करते हुए क्षणिकवाद में अर्थक्रिया के अस्तित्व की आलोचना की है। न्या० कु० में सवथा नित्य और सर्वथा अनित्य वस्तु में अर्थक्रिया का अभाव सिद्ध करके, प्रसङ्गवश वैभाषिकों के प्रतीत्यसमुत्पादवाद का खण्डन किया है। का० ९–के पूर्वार्द्ध तथा उसकी विवृति में निरंशज्ञानवादी योगाचार को उत्तर देते हुए एकत्व में विक्रिया और अविक्रिया का अविरोध प्रमाणित किया है। न्या० कु. में व्याख्यानमात्र है। का० 9 के उत्तरार्द्ध और 10 के पूर्वार्द्ध में संवेदनाद्वैतवादी का दृष्टान्त देकर तत्त्व को अनेकान्तात्मक सिद्ध किया है। विवृति में उसी का स्पष्टीकरण करते हुए द्रव्यपर्यायात्मक आन्तर और बाह्य वस्तु को ही प्रमाण का विषय बतलाया है। न्या० कु. में सत्ता के समवाय से वस्तु को सत् मानने वाले यौगों का निरसन करके उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक वस्तु को ही सत् बतलाया है। तीसरा परिच्छेद का० १०-के उत्तरार्द्ध और 11 के पूर्वार्द्ध में मति, स्मृति आदि ज्ञानों को शब्दयोजना निरपेक्ष होने से प्रत्यक्ष और शब्दयोजना सापेक्ष होने से परोक्ष बतलाया है। विवृति में सत्तरक्षानों को पूर्वज्ञानों का फल बतलाकर स्मृति प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञानों को प्रमाण माना है।