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________________ प्रस्तावना किन्तु ज्ञानपरमाणुओं का एक समूहमात्र है। विवृति में संवित्परमाणुओं की आलोचना करके ऋजुसूत्र और तदाभास को समझाया है। ___ का० ४४-में शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय का स्वरूप बतलाया है। शब्दनय काल, कारक और लिङ्ग के भेद से अर्थभेद मानता है। समभिरूढ़ पर्यायभेद से अर्थभेद मानता है। एवंभूत क्रिया की प्रधानता से अर्थ को भेदरूप ग्रहण करता है। विवृति में कालभेद, कारकभेद, लिङ्गभेद और पर्यायभेद को उदाहरण देकर समझाया है / बौद्धों के एक दो मन्तव्यों की भी आलोचना की है। काः ४५–में बौद्धों की आशंका का उत्तर देते हुए कहा है कि बौद्धमत में जब इन्द्रियज्ञान अपने कारणभूत अतीत अर्थ को जानता है तो स्मृति भी अतीत विषय को क्यों नहीं जान सकती ? इन्द्रियज्ञान और स्मृति, दोनों का विषय एक है, केवल इतना अन्तर है कि इन्द्रियज्ञान उसे स्पष्ट जानता है और स्मृति अस्पष्ट / विवृति में कारिकोक्त रहस्य को स्पष्ट करके शाब्दज्ञान को प्रमाण सिद्ध किया है। का०४६–में कहा है कि शाब्दज्ञान और इन्द्रियज्ञान दोनों ही अविसंवादी हैं। केवल इतना अन्तर है कि शाब्दज्ञान अस्पष्ट होता है। किन्तु इससे उसकी प्रमाणता में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि अनुमान को-अस्पष्ट होते हुए भी-बौद्धों ने प्रमाण माना है / विवृति में इसे स्पष्ट किया है। का०४७-में कहा है कि काल कारक आदि का लक्षण अन्यत्र कहा है, वहाँ से जान लना चाहिए। विकृति में काल कारक का लक्षण बतलाकर कहा है कि एकान्तवाद में षटकारकी नहीं बन सकती, अतः अनेकान्तवाद को अपनाना चाहिए। __का ४८-में कहा है कि अनेक सामग्रियों की सहायता से एक वस्तु भी प्रतिसमय षट्कारकरूप हो सकती है। विवृति में कारिका को स्पष्ट करते हुए नय दुर्नय और प्रमाण में अन्तर बतलाया है। पद्य 49 और 50 में प्रकरण का उपसंहार करते हुए वीर प्रभु का स्मरण किया है। न्या. कु. में इस परिच्छेद का व्याख्यानमात्र किया गया है। पष्ठ परिच्छेद ___ का० ५१-मं भगवान् महावीर को नमस्कार करके प्रमाण, नय और निक्षेप का कथन करने की प्रतिज्ञा की है। का, ५२---में प्रमाण, नय और निक्षेप का लक्षण बतलाया है। विवृति में ज्ञान को ही प्रमाण सिद्ध किया है। का 53- कहा है कि ज्ञान अर्थ को तो जानता है किन्तु 'मैं अर्थ से उत्पन्न हुआ हूँ यह नहीं जानता। यदि जानता, तो उसमें किसी को विवाद ही न होता। विवृति में कहा है. कि यदि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता तो वह अर्थ को नहीं जान सकता, जैसे इन्द्रियों से उत्पन्न होकर भी वह इन्द्रियों को नहीं जानता है। का० ५४–में कहा है कि यदि ज्ञान और अर्थ का अन्वय-व्यतिरेक होने के कारण अर्थ को ज्ञान का कारण कहा जाता है तो संशय विपर्यय आदि ज्ञान किससे उत्पन्न हुए कहे जायेंगे ? विवृति में कहा है कि यदि इन्द्रियगत और मनोगत दोषों को संशयादिज्ञान का जनक कहा जाता है तो अर्थ को ज्ञान का कारण मानने से क्या लाभ है ? दोषरहित इन्द्रिय और मन
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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