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________________ प्रस्तावना 11 साहित्य में तो सर्वप्रथम प्रमेयकमलमार्तण्ड में ही उसके दर्शन होते हैं। शालिकानाथ का भी कहीं कहीं अनुसरण किया है। कुमारिल के अभिहितान्वय तथा प्रभाकर के अन्विताभिधान का खण्डन भी प्रभाचन्द्र ने किया है। सर्वज्ञविषयक पूर्वपक्ष के निरूपण में बहुत सी कारिकाएँ ऐसी उद्धृत हैं जो श्लोकवार्तिक में नहीं पाई जाती। ऐसी संभावना है कि वे कुमारिल के बृहट्टीका नामक ग्रन्थ की कारिकाएँ हैं। बौद्धदर्शन-भारतीयदर्शन शास्त्र के तीन युग कल्पना किये जा सकते हैं-वैदिकयुग, बौद्धयुग और जैनयुग। वैदिकयुग में वेदानुयायी दर्शनों का समावेश किया जाता है जो वेद के प्रामाण्य की रक्षा करते हुए पदार्थ का विवेचन करते हैं। बौद्धयुग में वेदप्रामाण्य का निरसन करके न्यायशास्त्र में खूब परिवर्तन और परिवर्द्धन किया गया है। जैनयुग में बौद्धदर्शन की न्यायशास्त्रविषयक रूपरेखाओं का अनुसरण करते हुए आगमिक मन्तव्यों को दार्शनिक रूप दिया गया है। जैनयुग के आचार्यों ने किसी किसो मन्तव्य के सम्बन्ध में इतने मौलिक विचार प्रकट किये हैं कि उसे पृथक् युग कहना ही चाहिए। सभी मन्तव्यों का स्याद्वाददृष्टि से समन्वय करना हो इस युग की विशेषता है। __ जैन और बौद्ध दोनों ही वेद को प्रमाण नहीं मानते, अतः वैदिकदर्शनों के खण्डन में हम दोनों को कन्धे से कन्धा मिलाये खड़ा देखते हैं किन्तु दोनों के खण्डनांश में अपनी अपनी दृष्टि काम करती है। यही कारण है कि आचार्य समन्तभद्र से उपाध्याय यशोविजय पर्यन्त सभी श्वेताम्बर तथा दिगम्बर विद्वानों पर बौद्धयुग का प्रभाव होने पर भी उनकी मौलिक दृष्टि सुरक्षित बनी है। वेदविरोधी होने पर भी दोनों दर्शनों के सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर है अतः दोनों एक दूसरे का भी खण्डन करते हैं। जैनदर्शन का वह अंश बहुत ही महत्त्वपूर्ण है जिसमें बौद्धसम्मत मन्तव्यों की कड़ी आलोचना की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर, अर्चट, यशोमित्र, शान्तरक्षित, कमलशील आदि बौद्ध नैयायिकों के ग्रन्थों का जहाँ खण्डन किया है वहाँ परपक्ष के खण्डन में उनका सहारा भी लिया गया है। वैयाकरणदर्शन-शब्दाद्वैत के आद्य प्रवर्तक वाक्यपदीयकार भर्तृहरि कहे जाते हैं। प्रकृतप्रन्थ में स्फोटवाद, शब्दाद्वैतवाद आदि के पूर्वपक्ष के निरूपण में प्रभाचन्द्र ने यद्यपि तत्त्वसंग्रह, उसकी पञ्जिका और न्यायमञ्जरी से साहाय्य लिया है तथापि वे मन्तव्य वाक्यपदीय के ही हैं, तथा प्रमाणरूप से उसकी कारिकाएँ भी उद्धृत की गई हैं। ___ उक्त दर्शनों के ग्रन्थों के सिवाय तत्त्वोपप्लववाद पर तत्त्वोपप्लव नामक ग्रन्थ के रचयिता जयसिंहराशिभट्ट का भी अनुसरण प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों में मिलता है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने उसमें निर्दिष्ट विकल्पों के आधार पर ही संशयज्ञान आदि के पूर्वपक्षों का संघटन किया है। तथा समवाय के खण्डन में इस ग्रन्थ के बहुत से विकल्पों को अपनाया है। ___ जैनाचार्य-प्रभाचन्द्र ने अपने ग्रन्थों में विद्यानन्द और अनन्तवीर्य का स्मरण किया है और यह भी लिखा है कि अनन्तवीर्य की उक्तियों की सहायता से ही वे अकलङ्क के प्रकरणों को समझने में समर्थ हुए हैं तथा उनके ग्रन्थों का आलोडन करने से भी यही प्रतीत होता है कि उनपर विद्यानन्द और अनन्तवीर्य की शैली का ही विशेष प्रभाव है / उनके मन्थों से न्यायकुमुद का जहाँ जहाँ सादृश्य है वहाँ वहाँ टिप्पणों के द्वारा यह बात स्पष्ट कर दी गई है।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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