________________ न्यायकुमुदचन्द्र उत्तरकालीन ग्रन्थकारों में जो जैन ग्रन्थकार प्रभाचन्द्र की शैली से प्रभावित हुए तथा जिन्होंने प्रभाचन्द्र के लेखों का अनुसरण किया, उनमें सन्मतितर्कटीका के रचयिता अभयदेव सूरि तथा स्याद्वादरत्नाकर के रचयिता वादिदेवसूरि का नाम उल्लेखनीय है / श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के मौलिक मतभेद के आधारभूत दो सिद्धान्त समझ जाते हैं, एक केवलिमुक्ति और दूसरा स्त्रीमुक्ति। प्रभाचन्द्र से पहले इन सिद्धान्तों का निषेध और विधि दोनों सम्प्रदाय के आगामिक ग्रन्थों में ही देखे जाते थे किन्तु प्रभाचन्द्र ने पूर्वपक्षस्थापन और उसका खण्डन करके दार्शनिक क्षेत्र में भी इस विवाद को स्थान दिया। अतः उनके बाद अभयदेव सूरि और वादिदेवसूरि ने प्रभाचन्द्र के मार्ग का अनुसरण करके उक्त दोनों सिद्धान्तों के सम्बन्ध में दिगम्बरमान्यता का खण्डन करके श्वेताम्बरमान्यता का स्थापन किया। स्याद्वादरत्नाकर को प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों के प्रकाश में पढ़ने पर पाठक को पता चलता है कि प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों से रत्नाकर में कितना आदान किया गया है। रत्नाकर के सम्बन्ध में यहाँ यह लिख देना आवश्यक है कि न्यायकुमुद के बहुत से अंश वहाँ आनुपूर्वी से ज्यों के त्यों पाये जाते हैं और न्यायकुमुद के संशोधन में हमें उनसे बहुत सहायता मिली है। इसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा पर भी परम्परा से प्रभाचन्द्रका प्रभाव है, क्योंकि प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड की रचना के बाद अनन्तवीर्य ने प्रमेयरत्नमाला का निर्माण किया था और आचार्य हेमचन्द्र के प्रकरण पर प्रमेयरत्नमाला का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। मल्लिषेण की स्याद्वादमञ्जरी, तथा उपाध्याय यशोविजयजी पर भी प्रभाचन्द्र की शैली का प्रभाव पड़ा है। उपाध्यायजी ने उनके विकल्पजालों को अपने ढंग से अपनाया है। ___ इस प्रकार जैन तथा जैनेतर दार्शनिकों के साथ प्रभाचन्द्र की तुलना करने से प्रभाचन्द्र के अगाध पाण्डित्य और अनुपम तर्कशैली की रूपरेखा हृदय में अंकित हो जाती है और उसके प्रकाश में हम देखते हैं कि तस्वस्थापन में साम्प्रदायिक दृष्टि होते हुए भी दार्शनिक क्षेत्र में ज्ञान के आदानप्रदान में साम्प्रदायिकता नहीं थी और न एक दर्शन के विद्वान इतर दर्शनों का परिशीलन करने से विमुख ही होते थे। यदि पुरातन दार्शनिक विपक्षी दार्शनिकों के शास्त्रों के अध्ययन से मुख मोड़े रहते तो वे कभी भी दार्शनिक क्षेत्र में सफल नहीं हो सकते थे और न उन ग्रन्थरत्नों का निर्माण ही कर सकते थे जिन पर न केवल उस समाज को ही बल्कि भारतवर्ष को अभिमान है। 3. विषयपरिचय लघीयस्य स्वोपज्ञविवृति और न्यायकुमुदचन्द्र का विषयपरिचय एक साथ देने से तलनात्मक अध्ययन के प्रेमियों को सरलता रहेगी, तथा अन्य भी कई आवश्यक बातों पर प्रकाश पड़ सकेगा, अतः तीनों का संक्षिप्त विषयारिचय क्रमशः एकसाथ दिया जाता है / प्रथम परिच्छेद का० १-२-प्रथम कारिका के द्वारा तीर्थङ्करों को नमस्कार और दूसरी के द्वारा कण्टकशुद्धि की गई है। न्या० कु० में प्रथम कारिका की केवल व्याख्या की गई है और दूसरी का व्याख्यान करते हुए बौद्धों के सन्तानवाद की विस्तार से आलोचना की है।