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________________ प्रस्तावना गुणानां परमं रूपं न दृष्टिपथमृच्छति / यत्तु दृष्टिपथप्राप्तं तन्मायैव सतुच्छकम् // भामतीकोर वाचस्पति मिश्र इसे वार्षगण्य की बतलाते हैं। योगसूत्र की भास्वती आदि टीकाओं में भी इसे 'षष्ठितंत्र' नामक ग्रन्थ की बतलाया है। 54 वीं कारिका की विवृति में आगत 'तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभादि' धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु (1-6) का ही अंश है / कारिका 66-67 की विवृति के अन्त में “ततः तीर्थङ्करवचनसंग्रह विशेषप्रस्तारव्याकारिणौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको" आदि वाक्य आता है / यह आचार्य सिद्धसेन के सन्मतितर्क की तृतीय गाथा की संस्कृत छाया है। ___ इस प्रकार विवृति में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, वार्षगण्य और सिद्धसेन के ग्रन्थों से वाक्य या वाक्यांश लिये गये हैं। न्यायकुमुदचन्द्र . नाम-लघीयस्त्रय तथा उसकी विवृति के व्याख्यानग्रन्थ का नाम न्यायकुमुदचन्द्र है, जैसा कि उसके सन्धिवाक्यों में निर्देश किया गया है। किन्तु डा० विद्याभूषण, पाठक तथा प्रेमीजी' आदि अन्वेषकों ने 'न्यायकुमुदचन्द्रोदय' नाम से उसका उल्लेख किया है। कुछ शिलालेखों में भी न्यायकुमुदचन्द्रोदय ही नाम लिखा है। पुष्पदन्त के महापुराण का जो प्रथम भाग इसी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है, उसकी टिप्पणी में भी अकलंक का परिचय देते हुए उन्हें न्यायकुमुदचन्द्रोदय का कर्ता लिखा है। इससे पता चलता है कि इस नाम की परम्परा बहुत प्राचीन है। किन्तु न्यायकुमुदचन्द्र की श्र० प्रति के अन्तिम वाक्य को छोड़कर अन्यत्र किसी भी प्रति में उदयान्त नाम नहीं मिलता। संभवतः इसी कारण से पं० जुगल. किशोरजी मुख्तार ने रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रस्तावना में उदयान्त नाम देकर भी 'अनेकीन्त' में प्रकाशित अपने एक लेख में न्यायकुमुदचन्द्र नाम ही लिखा है। चन्द्र के स्थान में चन्द्रोदय नाम प्रचलित होने का कारण संभवतः आदिपुराण का वह श्लोके है, जिसमें चन्द्रोदय के कर्ता प्रभाचन्द्र कवि की स्तुति की गई है। किन्तु चन्द्रोदय और उसके कर्ता प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र नहीं हैं, इसका निर्णय हम समयविचार में करेंगे / अतः उसके आधार पर ग्रन्थ का नाम चन्द्रोदय प्रमाणित नहीं होता। तथा प्रभाचन्द्र के दूसरे ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड से भी 'न्यायकुमुदचन्द्र' नाम की ही पुष्टि होती है। क्योंकि वह प्रमेयरूपी कमलों का विकास करने के लिये मार्तण्ड है तो यह न्यायरूपी कुमुद का विकास करने के लिये चन्द्रमा है। जब मार्तण्ड के साथ ही उदय पद नहीं है तो चन्द्र के ही साथ कैसे हो सकता है ? अतः प्रकृत टीकाग्रन्थ का नाम न्यायकुमुदचन्द्र ही होना चाहिए। १“अत एव योगशास्त्रं व्युत्पादयितुमाह स्म भगवान् वार्षगण्यः-गुणानाम्" इत्यादि / 2 "तित्थयरखयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी"। 3 हिस्टरी आफ दी मिडीवल स्कूल ऑफ़ इन्डियन लाजिक, पृ०३३। ४'अकलंक का समय' शीर्षक आदि लेख / 5 जनहितैषी, भाग 11, पे० 429 / ६"सुखि..'न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः / " शिमोगा जिले के नगर ताल्लुके का शि० ले० न० 46 / ७पृ० 58 / 8 पृ० 130 / 9 चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे / कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् //
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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