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________________ न्यायकुमुदचन्द्र रचनाशैली-न्यायकुमुदचन्द्र की भाषा ललित और उसका प्रवाह निर्बाध है। उसका आशय न समझ सकनेवाला व्यक्ति भी उसकी धाराप्रवाह गद्य को पढ़ने में आनन्द का अनुभव कर सकता है / क्या भाषासौष्ठव और क्या दार्शनिकशैली, दोनों ही दृष्टि से प्रभाचन्द्र ने अपने पूर्वज और अकलंकसाहित्य के व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्द का अनुसरण करने का प्रयत्न किया है। किन्तु तुलना करने पर विद्यानन्द की शैली की अपेक्षा अनन्तवीर्य की शैली की छाप हम उनपर अधिक पाते हैं। विद्यानन्द की लेखनी अधिक प्रौढ़ है, अष्टशती की व्याख्या अष्टसहस्री का परिशीलन करने में विद्वानों को भी कष्टसहस्री का अनुभवन करना पड़ता है। विद्यानन्द ने अष्टशती की व्याख्या उस रीति से नहीं की, जिस रीति से साधारणतया व्याख्या की जाती है। उन्होंने पदों के समास तोड़कर उनके पर्यायवाची शब्दों के द्वारा अष्टशती का व्याख्यान नहीं किया, किन्तु उसके साकांक्ष पदों के आदि, मध्य तथा अन्त में आवश्यकतानुसार उन वाक्य, वाक्यांश, शब्द तथा विस्तृत चर्चाओं को स्थान दिया, जिनकी उपस्थिति, उनके गूढ़ रहस्य को अभिव्यक्त कर सकती थी। किन्तु प्रभाचन्द्र की भाषा में न तो उस श्रेणी की प्रौढ़ता ही है और न उन्होंने व्याख्या की उस दुरूह और कष्टसाध्य पद्धति को ही अपनाया है / वे अनन्तवीर्य की तरह कारिका का व्याख्यान करके विवृति का व्याख्यानमात्र कर देते हैं। किन्तु इस शैली में भी उनकी अपनी एक विशेषता है। वे कारिका का रहस्योद्घाटन करने के बाद ही विवृति का व्याख्यान नहीं कर डालते किन्तु कारिका और विवृति में प्रतिपादित मन्तव्यों को लेकर विपक्षियों के मन्तव्य की आलोचना करते हैं। किसी विषय की आलोचना करने से पहले वे उस विषय के समर्थक साहित्य के आधार पर उसका प्रामाणिक पूर्वपक्ष देते हैं, फिर उसकी एक एक युक्ति को लेकर विकल्पों के कोटिक्रम से उसकी धज्जियाँ उड़ा देते हैं / व्याख्याकार का पाण्डित्य उनके इन पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में निबद्ध निबन्धों में ही झलकता है। प्रतिवादी को विकल्पजाल में फाँसकर जब वे उसका निरसन करते हैं तो उनकी तर्कणाशक्ति की प्रशंसा करते ही बनती है। यथार्थ में प्रभाचन्द्र टोकाकार की दृष्टि से उतने सफल नहीं हुए हैं जितने विभिन्न शास्त्रीय चर्चाओं की आलोचना और प्रत्यालोचना में सफल हुए हैं। व्याख्याकार की दृष्टि से तो अकलंक के अन्य व्याख्याकारों को अपेक्षा उनका दर्जा सबसे लघु है। न्यायकुमुदचन्द्र के अन्त में जब वे अपनी लघुता का प्रदर्शन करते हुए लिखते हैं बोधो मे न तथाविधोऽस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः / साहाय्यञ्च न कस्यचिद्वचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये // अर्थात् “न तो मुझे वैसा ज्ञान ही है और न सरस्वती ने ही कोई वरदान दिया है। तथा प्रकृत ग्रन्थ के निर्माण में किसी से वाचनिक सहायता तक भी नहीं मिल सकी है।" तब ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी असामर्थ्य का अनुभव करते हैं। क्योंकि अपने दूसरे ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड के अन्त में उन्होंने इस प्रकार की लघुता प्रकट नहीं की है। . आचार्य प्रभाचन्द्र में अत्यन्त पूज्य बुद्धि रखते हुए अपने मत के समर्थन में हम उनके एक भ्रम का उल्लेख करने के लिये श्रद्धालु पाठकों से क्षमा चाहते हैं / लघीयत्रय के तीसरे परिच्छेद की आरम्भिक कारिका निम्नप्रकार है
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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