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________________ न्यायकुमुदचन्द्र ___ लघी० और विवृति में आगत विशेष स्थल, नाम आदि-लघीयस्त्रय की तीसरी कारिका. के अन्त में 'प्रमाण इति संग्रह' पद आता है। ग्रन्थकार के अन्य ग्रन्थ प्रमाणसंग्रह और न्यायविनिश्चय में भी यह पद आता है / यह पद सूत्रकार उमास्वाति के तत्प्रमाणे' (1 / 10) सूत्र की ओर सङ्केत करता है / उमास्वाति ने ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष विभाग करके उन्हें प्रमाण कहा है / उन्हीं का अनुसरण करते हुए अकलंकदेव भी प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञानों का 'प्रमाणे' पद में संग्रह करते हैं। तीसरी कारिका की विवृति में अकलंकदेव ने 'अपर' शब्द से किसी वादी के मत का उल्लेख किया है, व्याख्याकार प्रभाचन्द्र उसे दिङ्नाग का मत बतलाते हैं / चतुर्थ कारिका की विवृति में 'जैमिनि' का नाम आया है। बीसवीं कारिका की विवृति में 'ग्रामधानक' शब्द आता है, प्रभाचन्द्र उसे किसी ग्राम का नाम बताते हैं। इनके सिवा विवृति में कुछ ऐसे अंश भी पाये जाते है, जो ग्रन्थान्तरों से लिये गये हैं। उनमें से कुछ अंश तो ऐसे हैं जो उद्धरणवाक्यों के तौर पर लिये गये हैं। किन्तु कुछ अंश विवृति के ही अङ्ग बन गये हैं और इस प्रकार विवृतिकार के ही रचित प्रतीत होते हैं। दूसरों के वचनों को इस प्रकार मूल में सम्मिलित कर लेने की परिपाटी बहुत प्राचीन है। गौतम के न्यायसूत्र, वात्स्यायन के भाष्य, तथा कुमारिल के श्लोकवार्तिक में इस प्रकार के वाक्य पाये जाते हैं / शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह, हरिभद्र के शास्त्रवार्तासमुच्चय, और विद्यानन्द के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में तो इतर ग्रन्थकारों की ऐसी अनेकों कारिकाएँ हैं जो प्रमाणरूप में या पूर्वपक्ष के रूप में मूल में सम्मिलित कर ली गई हैं। ___ आठवीं कारिका की विवृति में " अर्थक्रियासमर्थ परमार्थसत् इत्यङ्गीकृत्य" ऐसा लेख है, यह धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक की कारिको का ही अंश है। तेईसवीं कारिका की विवृति "सर्वतः संहृत्य चिन्तां स्तिमितान्तरात्मना स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं" इत्यादि वाक्य से प्रारम्भ होती है। यह वाक्य भो प्रमाणवार्तिक की कारिका (3-124) का अविकल रूप है। 28 वीं कारिका की विवृति में आये 'वक्तुरभिप्रेतं तु वाचः सूचयन्ति नार्थम्' इस मत को प्रभाचन्द्र धर्मकीर्ति का मत बतलाते हैं। 41 वीं कारिका की विवृति में निम्नलिखित कारिका उद्धत है 1 प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं त्रिधा श्रुतमविप्लवम् / परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाण इति संग्रहः // 2 // 2 प्रत्यक्षमजसा स्पष्टमन्यच्छु नमविप्लवम् / प्रकीणे प्रत्यभिज्ञादौ प्रमाण इति संग्रह // 3-83 // 3 न हि तत्त्वज्ञानमित्येव यथार्थनिर्णयसाधनम् / इत्यपरः / 8 <<There are in it passages which were quoted almost verbatim from the Lankavatar sutra, Madhyamik sutra and other Buddhist works which werecomposed about the third or fourth century A. D." "न सन् नासन्न सदसत् सतो वैधात् / " न्या. सू० 4 / 1 / 48. "न सन् नासन्न सदसन् धर्मो निर्वर्तते यदा / " मा० सू० परि० 7 / “मायागन्धर्वनगरमृगतृष्णकावद् वा” न्या० सू०४।२।३२ / “यथा माया यथा स्वप्नो गन्धर्वनगरं यथा" / मा० सू०, परि० 7. Indian logic (S.C. Vidyabhushan ) 5 “दश दाडिमानि, षडपूपाः, कुण्डमजाजिनम् , पललपिण्डः / " 5 / 2 / 10 / यह पातञ्जलमहाभाष्य 1 / 1 / 3 का वाक्य है। 6 “पारायं चक्षुरादीनां संघाताच्छयनादिवत् // 105 // " अनु० परी / यह दिङ्नाग के न्यायप्रवेश के "परार्थाश्चक्षुरादयः संघातत्वात् शयनासनाद्यङ्गवत् / " का ही रूप है। 7 "अर्थक्रियासमर्थ यत्तदत्र परमार्थसत् / "
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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