________________ न्यायकुमुदचन्द्र जिससे ज्ञात होता है कि ये प्रतियाँ भी न्यायकुमुदचन्द्र के आधार पर ही की गई हैं / अतः उपलब्ध सामग्री के आधार पर तो लघीयत्रय का विभाजन मूलकार का किया हुआ प्रतीत नहीं होता। यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि ग्रन्थ का तीन प्रकरणों में विभाजित होना तो ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है। रह जाता है प्रत्येक प्रकरण का अवान्तर परिच्छेदों में विभाजन, सो कारिकाओं की स्वोपज्ञविवृति का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने से उसका भी स्पष्टीकरण हो जाता है क्योंकि प्रत्येक परिच्छेद की अन्तिम कारिका की विवृति उपसंहारात्मक प्रतीत होती है। तथा, मूलकार के अन्य ग्रन्थों के देखने से भी विषय के अनुरूप ग्रन्थ का विभाजन करने की प्रवृत्ति उनमें पाई जाती है / स्वोपज्ञविवृति की प्रतियों में जो 'न्यायकुमुदचन्द्रे' या 'श्रीमद्भट्टाकलङ्कविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे' लिखा है वह लेखकों की भूल का परिणाम है और उससे इतना ही प्रमाणित होता है कि न्यायकुमुदचन्द्र की रचना के बाद यह प्रतियाँ की गई हैं। यदि उनका आधार न्यायकुमुदचन्द्र होता तो दोनों की सन्धियों में मौलिक अन्तर न होता / तथा न्यायकुमुदचन्द्र की प्रतियों में चौथे पांचवें तथा सातवें परिच्छेद के अन्त में दुहरे सन्धिवाक्य पाये जाते हैं, जिनमें से एक परिच्छेद का अन्त सूचक है और दूसरा प्रवेश का / यथा-"इति प्रभाचन्द्रविरचिते न्यायकुमुदचन्द्रे लघीयस्त्रयालङ्कारे पञ्चमः परिच्छेदः / " "एवं प्रक्रान्तप्रत्यक्षादिपरिच्छेदपञ्चमो नयप्रवेशो द्वितीयः / " इससे भी उक्त बात का समर्थन होता है। लघीयत्रय का अन्तःपरीक्षण करने से एक शंका पुनः हृदय में उठ खड़ी होती है। हम लिख आये हैं कि यह ग्रन्थ छोटे छोटे तीन प्रकरणों का संग्रह है। आस्तिकों के नियमानुसार इसके आरम्भ में तो मङ्गलगान किया ही गया है किन्तु मध्य में, तीसरे प्रवचनप्रवेश के प्रारम्भ में भी मङ्गलगान किया है। न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता इसे मध्य मङ्गल बतलाते हैं क्योंकि शास्त्रकार ग्रन्थ के आदि मध्य और अन्त में मङ्गल का विधान करते हैं। किन्तु अकलंक के किसी अन्य ग्रन्थ में हम मध्य मङ्गल नहीं पाते। इसके सिवाय, उनके न्यायविनिश्चय नामक ग्रन्थ में-जिसके तीन प्रस्ताव बृहत्त्रय कहे जाने के योग्य हैं-प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में स्रग्धरा और शार्दूलविक्रीडित छन्द पाये जाते हैं, जो परिच्छेद या प्रकरण की समाप्ति का सूचन करते हैं। लघीयत्रय में इस तरह के पद्य नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश के अन्त में पाये जाते हैं। तथा तीसरे प्रवेश के आदिश्लोक में मङ्गलगान के साथ ही साथ प्रमाण नय और निक्षेप का कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है और प्रमाण और नय का वर्णन करते हुए प्रमाणप्रवेश और नयप्रवेश में प्रतिपादित कुछ बातों की पुनरुक्ति भी की गई है। तथा स्वविवृति की प्रतियों में द्वितीयप्रवेश के अन्त में समाप्तिसूचक 'कृतिरियं भट्टाकलङ्कस्य' आदि लिखा हुआ है / इस पर से ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ, तीन नहीं, अपित दो प्रकरणों का एक संग्रह है। यदि नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश की तरह, प्रमाणप्रवेश के अन्त में भी समाप्तिसूचक पद्य होता तो तीनों प्रवेशों के स्वतंत्र प्रकरण होने में सन्देह को स्थान न रहता। यह आशंका साधार है और हृदय को लगती भी है किन्तु ग्रन्थ का नाम लघीयत्रय होते हुए भी एक ही ग्रन्थ के रूप में हमें उसकी समीक्षा करनी चाहिए, न कि तीन स्वतंत्र 1 परपरिकल्पितद्रव्यखण्डनमनेकान्तनयेन द्रव्यस्थापनं नाम द्वितीयपरिच्छेदः / परपरिकल्पितानुमानादिखण्डने स्वमतप्रणीतप्रमाणद्वयव्यवस्थापने तृतीयपरिच्छेदः / ज. विवृति /