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________________ प्रस्तावना आज हम अपने पाठकों के सन्मुख जिस ग्रन्थरत्न की प्रस्तावना उपस्थित करते हैं उसका नाम न्यायकुमुदचन्द्र है / यह ग्रन्थ एक स्वतंत्र रचना न होकर लघीयत्रय और उसकी विवृति का विशद व्याख्यान है। यद्यपि आज से कई वर्ष पहले मूलग्रन्थ लघीयस्त्रय अभयचन्द्रसूरि'रचित तात्पर्यवृत्ति के साथ इसी ग्रन्थमाला के प्रथम पुष्प के रूप में प्रकाशित हो चुका था किन्तु उसकी विवृति और व्याख्यान अभी तक अप्रकाशित ही था। न्यायकुमुदचन्द्र की प्रतियाँ तो कुछ ग्रन्थभण्डारों में पाई भी जाती थीं किन्तु स्वोपज्ञविवृति के अस्तित्व का पता तो सबसे पहले पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने ही लगाया था। आज दोनों ग्रन्थरत्न अपने अनुरूप संपादन और मुद्रण के साथ प्रकाशित हो रहे हैं। __ अपनी इस प्रस्तावना को हमने दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम भाग ग्रन्थों से सम्बन्ध रखता है और दूसरा ग्रन्थकारों से / ग्रन्थविभाग में, ग्रन्थों के सम्बन्ध में जो कुछ जाना जा सका उसे बतलाने का प्रयत्न किया है और ग्रन्धकार विभाग में ग्रन्थकारों के सम्बन्ध में आवश्यक सभी बातें निर्दिष्ट करने का यथाशक्ति प्रयत्न किया है। 1. ग्रन्थपरिचय लघीयस्त्रय-जैसा कि इसके नाम से प्रकट होता है, यह ग्रन्थ छोटे 2 तीन प्रकरणों का संग्रह है। प्रकरणों का नाम क्रमशः प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश है। प्रथम प्रवेश में चार परिच्छेद हैं, दूसरे में एक और तीसरे में दो। इस प्रकार इस ग्रन्थ में कुल सात परिच्छेद हैं। ग्रन्थ का प्रवेशों और परिच्छेदों में विभाजन स्वयं ग्रन्थकार का ही किया हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि उसकी स्वोपज्ञविवृति की जो प्रतियाँ हमारे देखने में आई, उनमें भी विषयविभाजन का यही क्रम है, तथा न्यायकुमुदचन्द्र की हस्तलिखित प्रतियों में और मुद्रित तात्पर्यवृत्ति में भी उक्त क्रम ही पाया जाता है, उसमें कोई व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं होता। किन्तु यहाँ पर एक शंका उत्पन्न हो सकती है। कहा जा सकता है कि न्यायकुमुदचन्द्र की विभिन्न प्रतियों में विषयविभाजन का एक ही क्रम देखकर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि यह विभाजन मूलकार का किया हुआ है क्योंकि विभिन्न प्रतियों में पाठभेद हो सकता है किन्तु विषयविभाजन में तो अन्तर पड़ने का कोई कारण ही नहीं है। तथा अभयचन्द्र ने भी अपनी तात्पर्यवृत्ति न्यायकुमुदचन्द्र को सामने रखकर ही बनाई है, जैसा कि उसके प्रत्येक परिच्छेद के अन्तिम श्लोक में दत्त 'अकलंकप्रभा' शब्द से व्यक्त होता है। अतः उन्होंने भी वही क्रम अपनाया होगा जो प्रभाचन्द्र ने अपनाया था। रह जाती हैं स्वोपज्ञविवृति की प्रतियाँ, किन्तु उनमें भी प्रथम परिच्छेद की सन्धि में 'इति न्यायकुमुदचन्द्रे' आदि लिखा है, अनेकान्त, वर्ष 1, पृ. 135 / 2 अन्तिम प्रवचनप्रवेश का दो परिच्छेदों में विभाजन स्वविवृति की मूल प्रतियों में नहीं पाया जाता।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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