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________________ प्रस्तावना प्रकरणों के एक संग्रह के रूप में, और उस दृष्टि से उसके त्रयत्व में विशेष वाधा उपस्थित नहीं होती। अकलंकदेव के अन्य प्रकरणों के देखने से ज्ञात होता है कि वे ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलगान करने के बाद कण्टकशुद्धि आदि के उद्देश्य से एक पद देते हैं। इस ग्रन्थ में भी ऐसा ही क्रम पाया जाता है, मंगलगान के पश्चात् 'सन्तानेषु निरन्वयक्षणिक' आदि पद्य के द्वारा इसमें भी कण्टकशुद्धि की गई है। प्रमाण और नयप्रवेश की कुछ बातें यद्यपि प्रवचनप्रवेश में दुहराई गई हैं तथापि उनमें दृष्टिभेद है और उसका स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा। रह जाती है प्रवचनप्रवेश के प्रारम्भ में मङ्गलगान की बात, सो न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता ने मध्यमङ्गल बतलाकर उसका समाधान कर ही दिया है। क्योंकि ग्रन्थ का नाम उसके तीन प्रवेश और प्रवेशों के अवान्तर परिच्छेदों के रहते हुए कोई भी विचारक उसे मध्य मङ्गल के सिवाय अन्य बतला ही क्या सकता था। फिर भी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ के पञ्चमपरिच्छेदान्तभाग को पृथक् बनाया गया है और प्रवचनप्रवेश को पृथक् , और बाद में दोनों को सङ्कलित करके लघीयस्त्रय नाम दे दिया गया है / प्रारम्भ के चार परिच्छेदों में प्रमाण के स्वरूप, संख्या, विषय और फल का वर्णन होने के कारण उन्हें प्रमाणप्रवेश नाम दिया गया, पाँचवें परिच्छेद में केवल नयों का वर्णन होने के कारण उसे नयप्रवेश संज्ञा दी गई और छठवें तथा सातवें परिच्छेद में प्रमाण नय और निक्षेप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करके भी श्रत और उसके भेद प्रभेदों का प्रधानतया वर्णन होने के कारण उन्हें प्रवचनप्रवेश नाम से व्यवहृत किया / ___ अकलंक के प्रकरणों पर वौद्ध नैयायिक धर्मकीर्ति का बड़ा प्रभाव है। धर्मकीर्ति ने अपने प्रमाणविनिश्चय और न्यायबिन्दु में तीन तीन ही परिच्छेद रक्खे हैं। अकलंकदेवने अपने न्यायविनिश्चय में भी तीन ही परिच्छेद रक्खे हैं, अतः संभव है कि इसी का अनुसरण करके लघीयत्रय नाम की और उसके तीन प्रवेशों की कल्पना की गई हो / अस्तु, - पहले परिच्छेद में साढ़े छ कारिकाएँ हैं, दूसरे में तीन, तीसरे में साढ़े ग्यारह, चतुर्थ में आठ, पाँचवे में इक्कीस, छठवें में बाईस और सातवें में छ / मुद्रित लघीयस्त्रय के पाँचवे परिच्छेद में केवल बीस कारिकाएँ हैं किन्तु स्वोपज्ञविवृति तथा न्यायकुमुदचन्द्र की प्रतियों में ‘लक्षणं क्षणिकैकान्ते' आदि कारिका अधिक पाई जाती है। विवृति तथा न्यायकुमुदचन्द्र की प्रतियों में कारिकाओं पर क्रमसंख्या नहीं दी गई है किन्तु मुद्रित लघीयस्त्रय में क्रमसंख्या दी है। पता नहीं, यह क्रमसंख्या हस्तलिखित प्रति के आधार पर दी गई है या संपादक ने अपनी ओर से देदी है। विवृति की प्रतियों में प्रवचनप्रवेश के प्रारम्भ में निम्न पद्य अधिक पाया जाता है मोहेनैव परोपि कर्मभिरिह प्रेत्याभिबन्धः पुनः , भोक्ता कर्मफलस्य जातुचिदिति प्रभ्रष्टदृष्टिर्जनः / कस्माचित्रतपोभिरुद्यतमनाश्चैत्यादिकं वन्दते , किं वा तत्र तपोऽस्ति केवलमिमे धूर्जडा वञ्चिताः॥१॥ रचनाशैली आदि से तो यह पद्य अकलंकदेव का ही जान पड़ता है किन्तु न्यायकुमुदचन्द्र की किसी भी प्रति में इसका सङ्केत तक भी नहीं है / अकलंक के किसी अन्य ग्रन्थ में भी यह नहीं पाया जाता / पता नहीं, विवृति की प्रतियों में यह कहाँ से आकर घुस गया है ?
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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