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________________ सम्पादकीय प्रगति हो तथा उसको समग्रता का मापदण्ड कुछ ऊँचा हो। तथा प्रचलित अध्ययन क्रम में परिवर्तन होकर कुछ विशाल दृष्टि उत्पन्न हो। इसकी सफलता की जांच तो पाठक ही कर सकेंगे। इस संस्करण की विशेषताएँ संक्षेप में निम्न प्रकार हैं। पाठान्तर-इसके सम्पादन में अति प्राचीन प्रतियों का उपयोग किया गया है और मौलिक पाठान्तर नीचे टिप्पण में दे दिये गये हैं। पाठान्तर देते समय हमारे सामने प्रधानतया दो दृष्टियाँ रहीं हैं-एक अर्थ विषयक और दूसरी लिपिविषयक / अर्थ की दृष्टि से जो पाठ विशेष महत्त्वपूर्ण प्रतीत हुए उन्हें मूल में दिया है और शेष को टिप्पण में। लिपि-विषयक पाठान्तर पाठकों को यह बतलाने के लिये दिये हैं कि किस तरह लिपिसाम्य से लेखकगण कुछ का कुछ समझ लेते हैं और उनकी यह भूल अर्थ का अनर्थ तो करती ही है, किन्तु पाठान्तरों की भी सृष्टि कर डालती है। उदाहरण के लिये, 'तद्धि स्वकारण' का लिपि-दोष से 'तद्विश्वकारण' समझ लिया गया। पाठान्तर को ठीक 2 समझने के लिये जिस शैली का अनुसरण किया है उसे जान लेना भी आवश्यक है / पाठान्तर जिस वर्ण से प्रारम्भ होता है ऊपर उस वर्ण पर ही अंक दिया है / यदि पाठान्तर किसी शब्द का अंश है और उसके प्रारम्भ के, अंत के या दोनों ओर के कुछ वर्ण छोड़ दिये गये हैं, तो उनको बतलाने के लिये नीचे टिप्पण में पाठांतर के आगे, पीछे या दोनों ओर डैश लगा दिये गये हैं। यथा 'तद्धिस्वकारण' का पाठांतर 'तद्विश्वकारण' है तो 'तद्धि' के 'त' के ऊपर अंक देकर, नीचे टिप्पण में तद्विश्वका-' इस रूप में पाठान्तर दिया है। 'का' के आगे का डैश बतलाता है कि कुछ वर्ण छोड़ दिये गये है जो मूल पाठ के ही सदृश हैं / टिप्पणी-इस संस्करण का सबसे अधिक परिश्रम से तैयार किया भाग इसकी टिप्पणी ( Foot note) है। इसके लिये जैन बौद्ध और वैदिक दर्शन के उपलब्ध प्रायः सभी मौलिक प्रन्यों का यथासंभव उपयोग किया गया है। संस्कृत वाङमय के पठन-पाठन में आजकल हम लोगों ने एक दृष्टि को बिल्कुल ही भुला दिया है / दार्शनिक प्रबन्धों में भी न केवल ऐतिहासिक घटनाओं के बीज निक्षिप्त रहते हैं, किन्तु उनका प्रत्येक शब्द, प्रत्येक युक्ति और प्रत्येक सिद्धान्त अपने उदर में अपनी कहानी छिपाये हुए है / यह बात इतनी सत्य है कि विद्वत्समाज उसे स्वीकार किये बिना न रहेगा। प्राचीन साहित्य के किसी भी ग्रंथ का अध्ययन करते समय अध्येता को यह स्मरण रखना चाहिये कि उस ग्रन्थ की रचना में तत्कालीन परिस्थिति का बहुत बड़ा हाथ है। और यदि उसके पूर्वकालीन, समकालीन और उत्तरकालीन ग्रन्थों के साथ उसे तुलनात्मक दृष्टि से पढ़ा जाये तो ऐसे ऐसे रहस्यों का उद्घाटन होता है जिनकी कल्पना कर सकना भी संभव नहीं है / साहित्य चाहे वह दार्शनिक हो या धार्मिक, सामाजिक हो या राजनैतिक, पौराणिक हो या व्याख्यात्मक, अपने समय के द्वन्द्वों का प्रतिबिम्ब होता है / जिस साहित्य में केवल वस्तु विवेचन हो, वह भी इस द्वन्द्व से अछूता नहीं रह सकता तब जिसमें वस्तुविवेचन के साथ साथ उस समय के प्रचलित मत-मतान्तरों की आलोचना की गई हो, वह साहित्य अपने रचनाकाल के प्रभाव से कैसे अछूता रह सकता है ? लघीयत्रय तथा उसकी स्वोपज्ञ विवृति उस समय रचे गये हैं जब भारत की अन्तर्मुखी दार्शनिक परिस्थिति में यूरुप की बहिमुखी आधुनिक परिस्थिति से भी अधिक उथल पुथल हो रही थी और भारतवर्ष के दार्शनिक क्षेत्र में धर्मकीर्ति और कुमारिल सरीखे प्रखर तार्किक और समर्थ विद्वान अपनी
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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