________________ सम्पादकीयं किञ्चित् सम्पादन गाथा-सन् 1933 के मार्च की बात है, ग्रन्थमाला के मन्त्री पं० नाथूरामजी प्रेमी की कुछ ग्रन्थों के अन्वेषणार्थ एक सूचना निकली। उसका उत्तर देना ही इस ग्रन्थ के सम्पादन का श्री गणेश है। ___प्रेमीजी की इच्छा रही कि इसका सम्पादन सन्मतितर्क सरीखा महत्त्वपूर्ण एवं सामग्रीसम्पन्न हो / सौभाग्य से सन्मतितर्क के सम्पादक पं० सुखलाल जी सा० काशी विश्वविद्यालय में जैनदर्शन के अध्यापक होकर आए और वे ही अपने हाथ से प्रेमी जी का वह पत्र लाए जिसमें न्यायकुमुदचन्द्र के सुसम्पादन की खास प्रेरणा थी। मैंने पं० कैलाशचन्द्र जी से सम्पादन में यथाशक्ति सहायता का वचन मिलने पर सम्पादन कार्य शुरू किया। / पं० सुखलाल जी के नित्योत्साह तथा सुनिश्चित कार्यपद्धति के अनुसार इसका कार्य चालू किया गया। इसी बीच पंडितजी के साथ तत्त्वोपप्लवसिंह, प्रमाणमीमांसा, जैनतर्कभाषा तथा * ज्ञानबिन्दु के सम्पादन में कार्य करने का अवसर मिला। इन ग्रन्थों के सम्पादन निमित्त देखी गई प्रचुर जैन-जैनेतर ग्रन्थ राशि का न्यायकुमुदचन्द्र में, तथा न्यायकुमुदचन्द्र के लिए देखे गए प्रन्थसमुदाय का उक्तग्रन्थों में खूब उपयोग हुआ। करीब 225 ग्रन्थों का तो इसी ग्रन्थ की टिप्पणी सङ्कलित करने में उपयोग किया है / जिसमें प्रमाणसंग्रह, सिद्धिविनिश्चयटीका, नय चक्रवृत्ति, न्यायविनिश्चयविवरण, तत्त्वोपप्लवसिंह, हेतुबिन्दुटीका जैसे अलभ्य लिखितग्रंथ तथा प्रमाणवार्त्तिक, वार्तिकालंकार, वादन्याय जैसी दुर्लभ प्रूफ पुस्तकें भी शामिल हैं। ब. और ज० प्रति में शक्तिनिरूपण के बाद करीब 22 पत्र का पाठ छूटा है / ये पत्र आ० प्रति में अर्ध त्रुटित थे। इस पाठ की पूर्ति के लिए हमने उत्तर प्रान्तकी आरा, व्यावर, खुरजा, इन्दौर, ललितपुर आदि स्थानों की प्रतियों की जांच कराई तो मालूम हुआ कि सभी प्रतियों में उक्त पाठ छूटा ही हुआ है / अन्ततो गत्वा भाण्डारकर-प्राच्यविद्यासंशोधन-मन्दिर पूना की ताड़पत्रवाली प्रति से उक्त पाठ की पूर्ति करने की आशा से पूना गया / और वहां 1 माह रहकर एक कनड़ी जानकार की सहायता से वह 22 पत्र का टूटा हुआ पाठ पूरा करके ग्रन्थ को अखंड किया / पीछे से श्रवणवेलगोला से भट्टारक श्री चारुकीर्ति द्वारा भेजी गई ताडपत्र की प्रति मिल जाने से उसके पाठान्तर भी ग्रन्थ के इस भाग के अन्त में दे दिए हैं। इस तरह लगातार पाँच वर्ष के सतत और कठिन परिश्रम के बाद प्रस्तुत भाग को संभव-सामग्री-संपन्न बनाने का प्रयत्न किया गया है। प्रस्तुत संस्करण और उसकी विशेषताएँ-इस संस्करण में मुद्रित मूलप्रन्थ और उसकी व्याख्या साहित्यिक और दार्शनिक दृष्टि से जितनी महत्वपूर्ण है उनका संपादन भी उतनी ही तत्परता और संलग्नता से किया गया है और आज कल की सुविदित सम्पादन प्रणालियों पर दृष्टि रखते हुए संस्करण को अधिक से अधिक उपादेय और उपयोगी बनाने की चेष्टा में अपनी दृष्टि से कोई कमी नहीं की गई है। दिगम्बर साहित्य के अद्यावधि प्रकाशित प्रन्थों की पिछड़ी हुई दशा को देखकर तथा दूसरे दूसरे अच्छे अच्छे संस्करणों की अग्रगामिता को ध्यान में रखते हुए हमने इस बात का यह लघुप्रयत्न किया है कि प्रकाशन तथा सम्पादनक्षेत्र में कुछ