________________ प्राकथन Xiii न्यायकुमुदचन्द्र के छपे 402 पेज, अर्थात् मूल मात्र पहला भाग मेरे सामने है। केवल उसी को देखकर मैंने अपने विचार यहाँ लिखे हैं। यद्यपि जैन-परम्परा के स्थानक वासी और श्वेताम्बर फिरकों के साहित्य तथा तद्विषयक मनोवृत्ति के चढ़ाव उतार के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ कहने योग्य है। इसी तरह ब्राह्मण-परम्परा की साहित्य विषयक मनोवृत्ति के जुदे जुदे रूप भी जानने योग्य हैं। फिर भी मैंने यहाँ सिर्फ दिगम्बर-परम्परा को ही लक्ष्य में रख कर लिखा है। क्योंकि यहाँ बही प्रस्तुत है और ऐसे संक्षिप्त प्राक्कथन में अधिक चर्चा की गुंजाइश भी नहीं। हिन्दू विश्वविद्यालय -सुखलाल संघवी [ जैनदर्शनाध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय काशी / भूतपूर्वाचार्य गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद / / 26-4-38