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________________ प्रस्तावना 125 के एक उल्लेख से भी प्रमाणित होती है। केवलिभुक्ति के निषेधक दिगम्बरों के मत की आलोचना करते हुए वादिदेवसूरि लिखते हैं-"प्रभाचन्द्रस्तु 'छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश' इति 'बादरसाम्पराये सर्वे' इति च पूर्वापरपरिगता.सूत्रद्वयीं विधिपरां परामृशताऽन्तरालिकं तु 'एकादश जिने' इति सूत्रं निषेधनिष्ठं निष्टङ्कयितुमेकादशशब्दस्यकाधिकदशस्वरूपं प्रसिद्धं सम्भविनं चार्थमवगणय्य एकेनाधिका न दश एकादश इति व्युत्पत्तेः इत्येवमर्थ परिकल्पयन्'.." इत्यादि / इसमें लिखा है कि प्रभाचन्द्र 'सूक्ष्मसाम्पराययोश्चतुर्दश' तथा 'बादरसाम्पराये सर्वे' इन दोनों सूत्रों का अर्थ तो विधिपरक करते हैं किन्तु इन दोनों के बीच में पड़े हुए 'एकादशजिने' सूत्र का अर्थ 'एकेनाधिका न दश एकादश' करके निषेधपरक करते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड में केवलिमुक्ति के खण्डन में 'एकादशजिने' का उक्त अर्थ किया गया है, किन्तु वहाँ आगे और पीछे के शेष दो सूत्रों का कोई उल्लेख नहीं है। इससे पता चलता है कि प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थ पर भी कोई वृत्ति रची है जिसमें उक्त तीनों सूत्रों में से दो का अर्थ विधिपरक किया है। शाकटायनन्यास-शिलालेखों के उल्लेख तथा किंवदन्तो के आधार पर यह ग्रन्थ भी न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र की ही कृति कहा जाता है / ग्रन्थ का कुछ भाग उपलब्ध होने पर भी उसके कर्ता के सम्बन्ध में कोई निर्णयात्मक बात का पता उससे नहीं चल सका / इस प्रकार ये चार ग्रन्थ, जिनमें से तीन विशालकाय हैं और एक लघुकाय, अपने कर्ता के पाण्डित्य और नाम को आचन्द्रदिवाकर अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ हैं / इस प्रकार इस संस्करण में मुद्रित ग्रन्थों का तुलनात्मक परिचय और ग्रन्थकारों का विस्तृत इतिवृत्त देने के पश्चात इस प्रस्तावना को यहीं समाप्त किया जाता है / आत्मनिवेदन और आभारप्रदर्शन __ न्यायकुमुदचन्द्र के संपादन में सहयोग का वचन देने पर जो कार्य मेरे सुपुर्द किया गया, उसमें यह प्रस्तावना भी थी। मैं इस कार्य में कहाँ तक सफल हुआ हूँ यह तो ऐतिहासिकों की पर्यालोचना से ही जाना जा सकेगा। इतिहास का विषय अति जटिल है, पद पद पर भ्रम होने की संभावना बनी रहती है। तथा ऐतिहासिक को उपलब्ध सामग्री और कल्पना के आधार पर ही अपना अन्वेषणकार्य करना होता है। फलतः किसी नवीन सामग्री के प्रकाश में आने पर कभी कभी सब करा कराया चौपट हो जाता है। अतः ऐतिहासिक के सामने सफलता की अपेक्षा असफलता की ही संभावना अधिक रहती है किन्तु इससे वह अपने कार्य से विरत नहीं होता। यदि ऐसा होता तो आज संसार का प्राचीन इतिवृत्त अन्धकार में ही छिपा रहता। यही सब बातें सोच विचार कर मैंने इस दिशा में पग बढ़ाया है। मेरे इस प्रयास से भारत के दार्शनिक महापुरुषों के समय निर्धारण में यदि थोड़ी सी भी प्रगति हुई और ऐतिहासिक पर्यालोचना को अनुपयोगी समझकर उधर से आंख बन्द करनेवाली विद्वन्मण्डली का ध्यान इस ओर आकर्षित होसका तो मैं अपने प्रयत्न को सफल समझूगा / ___ अन्त में, मैं उन सब महानुभावों के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट किये बिना नहीं रह सकता, जिनके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षरूप से मुझे अपने कार्य में सहायता मिल सकी है। इस प्रस्तावना की रूपरेखा सन्मतितर्क की गुजराती प्रस्तावना की आभारी है। सहयोगी होने के
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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