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________________ प्रस्तावना 123 श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपञ्चपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्कन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथाप्रबन्धः कृतः // " इसके बाद पुनः कथाएँ प्रारम्भ होजाती हैं। अन्त में 'सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः' आदि पद लिखकर " इति भट्टारक श्रीप्रभाचन्द्रकृतः कथाकोशः समाप्तः' लिखा है। यह प्रति सम्बत् 1638 की लिखी हुई है। जिन ग्रन्थों की जिन प्रतियों के अन्त में उक्त प्रकार का वाक्य पाया जाता है उन की जांच करने से शायद इस प्रवृत्ति के चलन पर कुछ. प्रकाश डाला जा सकता है। वर्तमान में इसके सम्बन्ध में कुछ कह सकना संभव नहीं है / अस्तु / इस प्रकार प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण के प्रशस्तिश्लोकों की परीक्षा के परिणामस्वरूप न्यायकुमुद के कर्ता का समय ई० 1023 के बाद नहीं जाता और व्योमवतीटीका के रचयिता के समय को अवधि 950 ई० मानने पर प्रभाचन्द्र उसके पहले के विद्वान नहीं हो सकते / अतः ई० 950 से 1020 तक के मध्य में प्रभाचन्द्र का कार्यकाल प्रमाणित होता है / अतः प्रभाचन्द्र को ईसा की दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का विद्वान समझना चाहिये / यह वादिराज के गुरुसमकालीन थे इसी से वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित में ( 1025 ई०) अनेक आचार्यों का स्मरण करने पर भी इनका स्मरण नहीं किया है। ____ सन्मतितर्क के टीकाकार अभयदेवसूरि भी प्रभाचन्द्र के लघुसमकालीन ज्ञात होते हैं, क्योंकि उनके टीकाग्रन्थ पर प्रभाचन्द्र के दोनों प्रन्थों का प्रभाव स्पष्टतया प्रतीत होता है। और पं० सुखलाले वेचरदास जी ने उनका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और ग्यारवीं का पूर्वार्ध बतलाया है अतः सन्मतिटीका के रचनाकाल में प्रभाचन्द्र की वृद्धावस्था होनी चाहिये / प्रभाचन्द्र का बहुश्रुतत्व आचार्य प्रभाचन्द्र एक बहुश्रुत विद्वान थे / न्यायकुमुदचन्द्र के टिप्पणे तथा प्रस्तावना में दर्शित तुलना से उनके व्यापकज्ञान का अनुमान किया जा सकता है। सभी दर्शनों के प्रायः सभी मौलिक ग्रन्थों का उन्होंने अभ्यास किया था, उनका इतरदर्शनविषयक ज्ञान केवल ऊपरी न था; बल्कि वे प्रत्येक दर्शन के अन्तस्तल में प्रवेश किये हुए थे / यदि ऐसा न होता तो वे अपनी कृतियों में इतने अधिक सफल न हुए होते। इतरमतों की आलोचना करने से पूर्व वे उनके जो पूर्वपक्ष स्थापित करते हैं वे इतने परिपूर्ण और न्याय्य होते हैं कि उन्हे पढ़कर विपक्षी का आशय स्पष्टतया समझ में आ जाता है और ऐसा मालूम नहीं होता कि लेखक अपनी ओर से झूठी बातें गढ़कर विपक्षी के सिर पर लाद रहा है। उन्होंने अपने ग्रन्थों में जिन ग्रन्थों से उद्धरण दिये हैं उनमें से कुछ की तालिका निम्न प्रकार है-न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, न्यायमञ्जरी, वैशेषिकसूत्र, प्रशस्तपादभाष्य, पात जलमहाभाष्य, योगसूत्र, व्यासभाष्य, सांख्यकारिका, शावरभाष्य, ब्रह्मबिन्दूपनिषत्, छान्दोग्योपनिषत्, वृहदारण्यक, अभिधर्मकोश, न्यायबिन्दु, प्रमाणवार्तिक, माध्यमिकवृत्ति आदि। ये सभी ग्रन्थ अपने अपने दर्शन के मौलिक ग्रन्थ हैं और उनका उपयोग करने से प्रभाचन्द्र के बहुश्रुत विद्वान होने में कोई सन्देह नहीं रहता। 1 सन्मति. को गुजराती प्रस्तावना पृ० 85 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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