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________________ 122 न्यायकुमुदचन्द्र की ही प्रतिकृति है। छठवीं पंक्ति का 'सर्वप्राणिमनः प्रभेद' पद प्र० मा० के प्रारम्भ के श्लोक के 'सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दु' का ही अनुसरण है। अन्तिम की दो पक्तियां भी प्र० मा० की प्रशस्ति के श्लोक की-"शिष्याञ्जप्रतिबोधनः समुदितो योऽद्रेः परीक्षामुखात्, जीयात् सोऽत्र निबन्ध एष सुचिरं मार्तण्डतुल्योऽमलः,” इन पंक्तियों से ही ली गई हैं। सारांश यह है कि उक्त दो श्लोक प्र० मा० और न्या० कु० के श्लोकों के आधार पर ही रचे गये हैं। इस पर से मुख्तार सा० ने इस आशंका को प्रगट करते हुए, कि प्रमेयकमल आदि के कर्ता प्रभाचन्द्र ही उत्तरपुराण के टिप्पणकार हैं, उसका निराकरण किया है और वही समयवाला बाधक प्रमाण दिया है। टिप्पण के अन्तिम वाक्यों का पर्यवेक्षण करने से न्या० कु० के कर्ता और टिप्पण के कर्ता एक ही व्यक्ति नहीं जान पड़ते। न्या० कु. के कर्ता ने अपनी प्रत्येक कृति के अन्त में अपने गुरु पद्मनन्दि का स्मरण किया है किन्तु टिप्पणवाली प्रशस्ति में ऐसा नहीं है। तथा टिप्पण के जिस अन्तिम वाक्य में समय दिया है उसमें टिप्पणकार ने अपने गुरु को बलात्कारगण के श्रीसंघ का आचार्य बतलाया है तथा उन्हें सत्कवि लिखा है यथा-'बला''रगण श्री संघाचार्यसत्कविशिष्येण / सत्कवि नाम तो प्रतीत नहीं होता, उपाधि अवश्य हो सकती है। संभव है पाठ अशुद्ध हो या नाम लिखने से छूट गया हो। किन्तु न्या० कु. के कर्ता ने अपने संघ, गण यो गच्छ का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। श्रवणवेलगोला के शिलालेख नं. 40 (64) में प्रभाचन्द्र के गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्तिक को गोल्लाचार्य का प्रशिष्य बतलाया है और गोल्लाचार्य को देशीयगण का आचार्य लिखा है। यदि यह परम्परा ठीक हो तो प्रभाचन्द्र के गुरु देशीयगण के आचार्य ठहरते हैं। अतः दोनों प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति नहीं हैं। टिप्पण के अन्तिम श्लोकों का प्र० क० और न्या० कु० के साथ मिलान करते हुए हम लिख आये हैं कि उन श्लोकों की रचना उक्त दोनों ग्रन्थों के श्लोकों को देखकर की गई है और टिप्पण का रचनाकाल 1023 ई० लिखा है अतः उससे यह प्रमाणित होता है कि इस समय से पहले न्यायकुमुद और प्रमेयकमल की रचना हो चुकी थी। इन सब बातों को दृष्टि में रखकर हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि टिप्पण, न्यायकुमुद तथा प्रमेयकमल की किसी किसी प्रति के अन्त में जो वाक्य लिखा मिलता है वह पीछे के किसी व्यक्ति की करतूत है। वह व्यक्ति चाहे कोई टीका-टिप्पणकार हो या अन्य कोई हो, क्योंकि प्रभाचन्द्रभट्टारककृत गद्यकथाकोश की जो प्रति हमें श्रीयुत प्रेमीजी की कृपा से प्राप्त हो सकी है उसमें भी यह वाक्य मिलता है तथा उसकी प्रशस्ति के श्लोकों में भी न्यायकुमुद के कर्ता प्रभाचन्द्र का अनुसरण किया गया है। प्रति में 89 वी कथा की समाप्ति के बाद लिखा है “यैराराध्य चतुर्विधामनुपमामाराधनां निर्मलां प्राप्तं सर्वसुखास्पदं निरुपमं स्वर्गापवर्गप्रदा ? / तेषां धर्मकथाप्रपञ्चरचनास्वाराधना संस्थिता स्थेयात् कर्मविशुद्धिहेतुरमला चन्द्रार्कतारावधि // 1 // सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः पदैः प्रभाचन्द्रकृतः प्रबन्धः / कल्याणकालेऽथ जिनेश्वराणां सुरेन्द्रदन्तीव विराजतेऽसौ // 2 // 1 रन प्रस्ता० पृ० 62 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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