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________________ 118 न्यायकुमुदचन्द्र आदिपुराण ( ई०८३८ ) से पहले रचा गया था। हरिवंशपुराण में भी एक प्रभाचन्द्र का स्मरण किया गया है जो कुमारसेन के शिष्य थे। श्लोक निम्न प्रकार है ___“आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् / गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् // 38 // " प्र० सर्ग इस श्लोक के 'प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् ' पद का 'चन्द्रोदय' शब्द ध्यान देने के योग्य है / यद्यपि यहाँ उसका अर्थ जुदा है, तथापि हमें लगता है कि इसके प्रयोग में श्लेष से काम लिया गया है और वह प्रभाच के उस चन्द्रोदय का स्मरण कराता है जिसका उल्लेख आदिपुराण में किया गया है। यारा अनुमान सत्य है तो कहना होगा कि दोनों पुराणों में स्मृत प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति चार वे कुमारसेन के शिष्य थे। ऐसी दशा में न्यायकुमुद के कर्ता का पार्थक्य उनसे स्वतः होजाता है क्योंकि इनके गुरु का नाम पद्मनन्दि था। 2 न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र ने स्वामी विद्यानन्द और अनन्तवीर्य का स्मरण किया है। यदि आदिपुराण में उल्लिखित प्रभाचन्द्र और उनका चन्द्रोदय प्रकृत प्रभाचन्द्र और उनका ग्रन्थ न्यायकुमुदचन्द्र ही है तो यह संभव प्रतीत नहीं होता कि आदिपुराणकार न्यायकुमुदचन्द्र का तो स्मरण करें किन्तु उसमें स्मृत आचार्य विद्यानन्द और अनन्तवीर्य सरीखे यशस्वी ग्रन्थकारों को भूल जायें / विद्यानन्द और अनन्तवीर्य के ग्रन्थों के उल्लेखों के आधार पर दोनों का समय ईसा की नवमी शताब्दी से पहले नहीं जाता, अतः उनके स्मरणकर्ता प्रभाचन्द्र का स्मरण नवमी शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना आदिपुराण में नहीं किया जा सकता। 3 प्रभाचन्द्र ने अपने ग्रन्थों में प्रायः सभी दर्शनों के प्रख्यात प्रख्यात ग्रन्थों से उद्धरण दिये हैं। उनकी रचना पर जिन इतर ग्रन्थों का प्रभाव पड़ा है उनमें जयन्तभट्ट की न्यायमञ्जरी का नाम उल्लेखनीय है। कारकसाकल्यवाद का प्रतिष्ठाता जयन्त को ही बतलाया जाता है, श्रीगोपीनाथ कविराज ने गुण नद्र के गुरु जिनसेन को ही हारवंशपुराण का रचयिता लिखा है। किन्तु यह ठीक नहीं है। हरिवंशपुराणकार ने गुणभद्र के गुरु जिनसेन का स्मरण किया है, अतः ये दोनों जिनसेन दो व्यक्ति हैं। नामसाम्य से इनकी एकता का धोखा लग जाता है। 1 विद्यानन्द ने अपनी अष्टसहस्री के अन्त में लिखा है कि कुमारसेन की उक्ति से उनकी अष्टसहस्री वर्धमान हुई है, और कुमारसेन तथा उनके यश को उज्ज्वल करने वाले उनके शिष्य प्रभाचन्द्र का स्मरण हरिवंशपुराण ( ई० 783) में किया गया है। अतः यदि आदिपुराण (ई. 838 ) की रचना के बाद विद्यानन्द की कृतियों का जन्म माना जायेगा तो उस समय उन्हें कुमारसेन का साहाय्य नहीं मिल सकता। क्योंकि हरिवंशपुराण के उल्लेख के आधार पर उनके समय की अन्तिम अवधि अधिक से अधिक 800 ई. तक मानी जा सकती है। उक्त कथन में इस प्रकार की विप्रतिपत्ति पैदा की जा सकती है किन्तु वह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो 'उक्ति' से अभिप्राय केवल ‘वाचनिक साहाय्य' ही नहीं लिया जाता, बल्कि लिखित भी लिया जाता है जैसा कि न्यायकुमुदचन्द्र के पांचवे परिच्छेद के प्रारम्भ में प्रभाचन्द्र ने लिखा है कि-" मैंने अनन्तवीर्य की उक्ति की सहायता से अकलंकदेव की सरणि का खूब अभ्यास किया है। तथा न्यायविनिश्चयविवरण के प्रारम्भ में वादिराज ने लिखा है कि-" अकलङ्क की वाणी रूपी अगाध भूमि में छिपे हुए पदार्थों को अनन्तवीर्य के वचनरूपी दीपशिखा पद पद पर प्रकाशित करती है"। दोनों उल्लेखों में उक्ति और वचन से अभिप्राय अनन्तवीर्य की रचनाओं का ही लिया गया है। अतः कुमारसेनोक्ति से भी कुमारसेन की कोई रचना ही अभीष्ट प्रतीत होती है। दूसरे, हरिवंशपुराण में स्मृत कुमारसेन ही विद्यानन्द के कुमारसेन है. यह भी अभी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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