________________ प्रस्तावना प्रतीत नहीं होता। अतः अकलङ्क को आठवीं शताब्दी का विद्वान न मानकर सातवीं शताब्दी का विद्वान मानना चाहिये। 3 हरिभद्र और अकलङ्क की विवेचना में हम हरिभद्र पर अकलङ्क का प्रभाव दिखला आये हैं / और यह भी लिख आये हैं कि हरिभद्र ने अपनी अनेकान्तजयपताका में 'अकलङ्कन्याय' शब्द का प्रयोग किया है। अतः अकलङ्क को हरिभद्रसूरि ( ई० 700-770) से पूर्व का विद्वान मानना चाहिये। 4 जिनदासंगणिमहत्तर ने निशीथसूत्र पर एक चूर्णि रची है। इनकी एक चूर्णि नन्दिसूत्र पर भी है / इस चूर्णि की प्राचीन विश्वसनीय प्रति में इसका रचनाकाल शक सं० 598 ( ई० 676 ) लिखा है। नन्दिसूत्र पर हरिभद्रसूरि ने भी एक संस्कृत टीका रची है। इस टोका में उन्होंने बहुत सी जगह इसी सूत्र पर जिनदासमहत्तर की बनाई हुई उक्त चूर्णि से बड़े लम्बे लम्बे अवतरण दिये हैं। अतः चूर्णि में लिखे गये रचना काल की प्रामाणिकता में किसी सन्देह को स्थान नहीं रहता। निशीथचूर्णि में जिनदासमहत्तर ने सिद्धसेनदिवाकर के 'सन्मतितर्क' के साथ ही साथ अकलङ्क के 'सिद्धिविनिश्चय' नामक ग्रन्थ का भी उल्लेख किया है और उसे प्रभावकशास्त्र बतलाया है। इस उल्लेख से अकलङ्क को सातवीं शताब्दी के मध्य का विद्वान मानने में कोई शङ्का अवशिष्ट नहीं रह जाती। निशीथचूर्णि के इस उल्लेख से भी अकलङ्कचरित के उक्त श्लोक का अर्थ विक्रम सं० 700 ( ई० 643 ) ही प्रमाणित होता है। अतः ई०६४३ में अकलङ्क के शास्त्रार्थ करने से तथा ई०६७६ के आस पास रचे गये थचूर्णि नामक ग्रन्थ में अकलङ्क के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख मिलने से अकलङ्क का समय ई० 620 से 680 तक निर्णीत होता है। 1 सन्मतिप्रकरण (गुजराती अनुवाद) की प्रस्तावना, पृ० 35-36 / तथा जयसलमेर भण्डार की सूची (बड़ौदा ) पृ० 18 / 2 'हरिभद्रसूरि का समयनिर्णय जै० सा० संशो० भाग 1, अङ्क 1 पृ. 50 / "वि० सं० 733 वर्षे रचिताया निशीथचूया अवतरणानि हरिभद्रसूरीयावश्यकवृत्तौ दृश्यते।" जैसल. सूची (बड़ौदा ) पृ० 18 / 3 'दंसगगाही-दसणणाणपभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छयसम्मदिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः / / सिद्धिविनिश्चय का परिचय कराते हुए पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अनेकान्त' में लिखा था कि श्वेताम्बरों के जीतकल्पचर्णि ग्रन्थ की श्रीचन्द्रसूरिरचित टीका में सिद्धिविनिश्चय को प्रभावक ग्रन्थों में गिनाया है। तथा निशीथचूर्णि में सिद्धि विनिश्चय के उल्लेख होने का भी उल्लेख किया था। इसपर उसी पत्र की चतुर्थ किरण में पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजी की ओर से एक संशोधन और सूचना प्रकाशित हुआ था, जिसमें लिखा था कि निशीथचूर्णि में निर्दिष्ट सिद्धिविनिश्चय अकलंकदेव का तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि वे उक्त चूर्णि के रचयिता जिनदासमहत्तर के बाद ही हुये हैं। अतः चूणि में निर्दिष्ट सिद्धिविनिश्चय अन्य किसी का रचा होना चाहिये। और वे अन्य संभवतः श्वेताम्बरीय विद्वान होंगे। अपनी इस संभावना के उन्होंने दो मुख्य कारण बतलाये थेएक तो श्वेताम्बरीय किसी ग्रन्थ में निश्चित दिगम्बरीय ग्रन्थ का प्रभावक के तौर पर अन्यत्र उल्लेख न मिलना, दूसरे सन्मतितर्क जो श्वेताम्बरीय प्रतिष्ठित ग्रन्थ है उसके साथ और उससे पहले सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख होना। जहाँ तक हम जानते हैं सिद्धिविनिश्चय के प्रकाश में आने से पहले शायद ही किसी को यह पता हो कि इस नाम का भी कोई ग्रन्थ है। दिगम्बरसाहित्य में, जहाँ अकलंक के अन्य ग्रन्थों का निर्देश मिलता है सिद्धिविनिश्चय की तो गंध तक भी नहीं मिलती। इसके विपरीत श्वेताम्बरसाहित्य में उक्त उल्लेखों के सिवा सिद्धसेनगणि और देवसूरि के ग्रन्थों में भी सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख है। तथा देवसूरि ने तो 'तदाह अकलकः सिद्धिविनिश्चये' लिखकर सिद्धिविनिश्चय को अकलंककृत घोषित किया है।