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________________ 104 न्यायकुमुदचन्द्र सा० ने इस जैनपरम्परा का आविष्कार कहां से किया जो अकलंक को नवीं शताब्दी में ला रखती है। इस प्रकार की दन्तकथाओं और उल्लेखों के आधार पर ऐतिहासिक पर्यवेक्षण नहीं हो सकता / अतः अकलंक के समय की प्रचलित परम्परा भ्रान्त है और उसका आधार बिल्कुल निर्बल है। उसकी अपेक्षा अकलंकचरित का उल्लेख प्रामाणिक और साधार प्रतीत होता है। अब हम कुछ कुछ ऐसे प्रमाण उपस्थित करेंगे जो अकलंकचरित में निर्दिष्ट समय के पोषक हैं और जिनके प्रकाश में अकलंकदेव को ईसा की आठवीं शताब्दी का विद्वान नहीं माना जा सकता। 1 अनन्तवीर्य के समय के सम्बन्ध में डाक्टर पाठक के मत की आलोचना करते हुए एक फुटनोट में प्रो० ए. एन. उपाध्ये ने अकलङ्क के समय के सम्बन्ध में भी उनके मत की आलो. चना की है और दन्तिदुर्ग को साहसतुङ्ग ठहराना अनुमानमात्र बतलाया है। तथा यह भी लिखा है कि धवलाटीका में, जो जगत्तुङ्ग के राज्य में ( ई० 784 से 808) समाप्त हुई थी, वीरसेनाचार्य ने अकलङ्क के राजवार्तिक से लम्बे लम्बे वाक्य उद्धृत किये हैं। पं० जुगलकिशोर जी ने धवला टीका का समाप्तिकाल शक सं० 738 ( ई० 816 ) लिखा है। यद्यपि अकलङ्क को दन्तिदुर्ग का समकालीन मान कर भी वीरसेन के द्वारा धवलाटीका में उनके राजवार्तिक से उद्धरण दिये जाने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती, क्योंकि अकलङ्क के अन्त और धवला की समाप्ति में कई दशक का अन्तर है, तथापि धवल सरीखे सिद्धान्त ग्रन्थ में वीरसेन जैसे सिद्धान्तपारगामी के द्वारा आगमप्रमाण के रूप में राजवार्तिक से वाक्य उद्धृत किया जाना प्रमाणित करता है कि वीरसेन के समय में राजवार्तिक ने काफी ख्याति और प्रतिष्ठा प्राप्त करली थी और उसमें काफी समय लगा होगा। अतः अकलङ्क को दन्तिदुर्ग का समकालीन नहीं माना जा सकता। . 2 सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थभाष्य की टीका में अकलङ्क के 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख किया है। 'जैन साहित्यनो इतिहास' में परम्परा के आधार पर इन्हें देवर्द्धिगणि (5 वीं शताब्दी के लगभग ) का समकालीन बतलाया है। किन्तु इतने प्राचीन तो यह हो ही नहीं सकते, क्योंकि उस दशा में उनके ग्रन्थ में अकलङ्क का उल्लेख नहीं मिल सकता। गणिजी ने अपनी उक्त टीका में धर्मकीर्ति का नाम निर्देश किया है और दूसरी तरफ नवमी शताब्दी के विद्वान शीला ने गन्धहस्ती नाम से इनका स्मरण किया है / अतः उनका सातवीं और नवमी शताब्दी के मध्य में होना सुनिश्चित है। पं० सुखलाल जी का कहना है कि हरिभद्र और सिद्धसेनगणि ने परस्पर में एक दूसरे का उल्लेख नहीं किया। अतः ऐसी संभावना जान पड़ती है कि ये दोनों या तो समकालीन हैं या इनके बीच में बहुत ही थोड़ा अन्तर है। हरिभद्र का समय हम ऊपर लिख आये हैं, अतः सिद्धसेनगणि को आठवीं शताब्दी का विद्वान मानने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। अब यदि अकलङ्क का समय भी आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है तो उनकी सुप्रसिद्ध कृति का सिद्धसेनगणि द्वारा उल्लेख किया जाना किसी भी तरह संभव 1 जैनदर्शन, वर्ष 4, अंक 9, पृ. 386 / 2 समन्तभद्र पृ. 174 / 3 "एवं कार्यकारणसम्बन्धः समवायपरिणामनिमित्तनिर्वतादिरूपः सिद्धिविनिश्चयसृष्टिपरीक्षातो योजनीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेण / " पृ. 37 / 4 मोहनलाल देसाई कृत, पृ० 143 / 5 पृ० 397 / 6 आचाराङ्ग टीका पृ. 1, तथा 82 / * 'तत्वार्थसूत्र के व्याख्याकार और व्याख्याएँ' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष 1, पृ० 580 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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