________________ प्रस्तावना सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आ जाते हैं। यहाँ एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिये / वह यह है कि तत्त्वसंग्रह में केवल कुमारिल का ही उल्लेख नहीं हुआ है किन्तु उनके साक्षात शिष्य उव्वेयक उपनाम भवभूति का भी उल्लेख मिलता है / अतः इन उल्लेखों के आधार पर कुमारिल ईसा की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान सिद्ध होते हैं। अतः डाक्टर पाठक के मत में एक शताब्दी को भूल तो स्पष्ट ही है। किन्तु धर्मकीर्ति और अकलंक के साथ कुमारिल की आलोचना करने पर उसमें लगभग आधी शताब्दी की वृद्धि और भी हो सकती है जैसा कि हम आगे बतलायेंगे / इस प्रकार तीसरे हेतु में दर्शित अकलंक और कुमारिल का संबन्ध तथा कुमारिल का समय बिल्कुल मिथ्या है और उसके आधार पर अकलंक को ईसा की आठवीं शताब्दी के उत्तराध का विद्वान नहीं माना जा सकता। 5 अकलंकचरित के जिस श्लोक में अकलंक का बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ होने का समय दिया है वह निम्न प्रकार है "विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि / - कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्धीदो महानभूत् // " इस श्लोक में 'विक्रमार्कशक' सम्वत् का उल्लेख किया है। भारतीय इतिहास में विक्रमसम्वत् और शकसम्वत् अति प्रसिद्ध हैं / विक्रम सम्वत् के प्रचलितकर्ता विक्रम राजा के सम्बन्ध में इतिहासज्ञ जन अभी तक भी एकमत नहीं हैं / जैनकालगणना के अनुसार गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को हराकर अपने पिता का राज्य पुनः विजय किया था और इस विजय के उपलक्ष में विक्रम संवत् की नींव डाली थी। संम्भवतः इसी कारण से विक्रमसम्वत् का उल्लेख 'विक्रमाकशक' नाम से किया गया है। शकसम्वत् के लिये इस प्रकार का उल्लेख हमारे. देखने में नहीं आया। 'इन्सक्रिपशन्स् एट श्रवणबेलगोला' के द्वितीय संस्करण की भूमिका में आर० नरसिंहाचार्य ने उक्त श्लोक उद्धृत किया है और उसका अर्थ विक्रम संवत् 720 ही किया है / तथा अकलंक के समय की विवेचना में हम आगे जो प्रमाण उपस्थित करेंगे उनके आधार पर भी अकलंक के बौद्धों से शास्त्रार्थ करने का काल विक्रम सम्वत् 700 (ई०६४३) ही उचित प्रतीत होता है / अतः अकलंकचरित से भी अकलंक का समय ईसा की आठवीं शताब्दी के बदले सातवीं शताब्दी ही प्रमाणित होता है। ___ इस प्रकार अकलंक को राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराजप्रथम का समकालीन प्रमाणित करने के लिये जो हेतु दिये जाते हैं, वे सब लचर हैं और उनसे अकलंक का समय ईसा की सातवीं शताब्दी ही प्रमाणित होता है / अब शेष रह जाता है मल्लिषेण प्रशस्ति के श्लोक में साहसतुंग नरेश का नाम / यह साहसतुंग कौन थे इसका कोई उल्लेख प्रशस्ति आदि में नहीं है। दन्तिदुर्ग की उपाधि साहसतुंग कही जाती है किन्तु उसमें भी इतिहासज्ञों का मतैक्य नहीं है। लेविस राइस साहसतुंग के पहचानने में अपने को असमर्थ बतलाते हैं / अतः केवल 'साहसतुंग' नाम के आधार पर दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथम के साथ अकलंक का गठबन्धन नहीं किया जा सकता / कर्नाटक शब्दानुशासन की प्रस्तावना में राईस सा० ने लिखा है कि जैन परम्परा के अनुसार ई० 855 में, काञ्ची में अकलंक ने बौद्धों को परास्त किया था। पता नहीं, राईस __ 1 देखो ‘दिगम्बर जैन ' वर्ष 26, अंक 1-2 में प्रकाशित 'भगवान महावीर का समय' शीर्षक लेख /