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________________ 102 न्यायकुमुदचन्द्र का एक अन्य कारण भी दृष्टिगोचर होता है, जो पहले की अपेक्षा विशेष प्रबल प्रतीत होता है। अकलंक और कुमारिल का पारस्परिक सम्बन्ध निर्णय करने के बाद डाक्टर पाठक इस परिणाम पर पहुंचे कि समकालीन होने पर भी कुमारिल अकलंक के बाद तक जीवित रहे थे और कुमारिल का समय ई० 700 से 760 तक निर्णीत किया गया था। अतः यदि अकलंक को शुभतुंग कृष्णराज का समकालीन बतलाया जाता तो अकलंक कुमारिल के बाद तक जीवित प्रमाणित होते थे, क्योंकि शुभतुंग नरेश वि० सं०८१७ (ई० 760) में राज्याधिकारी हुए थे। संभवतः इसलिये डाक्टर पाठक ने उन्हें शुभतुंग के पूर्वाधिकारी दन्तिदुर्ग का समकालीन मानना उचित समझा। कुमारिल और अकलंक की विवेचना में हम डाक्टर पाठक के मत को भ्रान्त सिद्ध कर आये हैं और बतला आये हैं कि कुमारिल की जिन कारिकाओं को डा० पाठक अष्टशती पर कटाक्ष करनेवाली बतलाते हैं उनका उत्तर अकलंक ने अपने न्यायविनिश्चय में दे दिया है। किन्तु, कुमारिल के नाम से उद्धृत कुछ कारिकाएं ऐसी पाई जाती हैं जो श्लोकवार्तिक में नहीं मिलती और जिनका उत्तर अकलंक के उत्तरकालीन अनुयायियों ने दिया है। संभव है वे कारिकाएं कुमारिल के जिस ग्रन्थ की हैं उसे अकलंक ने न देखा हो और इसलिये डाक्टर पाठक के मतानुसार कुमारिल अकलंक के बाद तक जीवित रहे हों। किन्तु समकालीन होने पर भी हमें अकलंक की अपेक्षा कुमारिल ही ज्येष्ठ प्रतीत होते हैं। जैसा कि आगे के विवेचन से ज्ञात हो सकेगा। असत्य ऐतिहासिक श्रृंखला के आधार पर डाक्टर पाठक ने कुमारिल और अकलंक को ईसा की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ला रक्खा है, किन्तु उनका यह मत सर्वथा भ्रान्त है / ऐतिहासिक पर्यालोचन से कुमारिल और अकलंक दोनों ही ईस्वी सातवीं शताब्दी के विद्वान प्रमाणित होते हैं। ___हम लिख चुके हैं कि मुनि जिनविजय जी ने अनेक सुनिश्चित प्रमाणों के आधार पर हरिभद्रसूरि का समय ई० 700 से 770 तक निर्णीत किया है। हरिभद्रसूरि ने कुमारिल का उल्लेख किया है / इस उल्लेख के आधार पर कुमारिल को ईसा की आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उठाकर कम से कम उसके पूर्वार्ध में तो लाना ही होगा / किन्तु यह बला इतने से ही दूर नहीं हो जाती, क्योंकि हरिभद्र ने बौद्ध विद्वान शान्तरक्षित का भी उल्लेख किया है। और शान्तरक्षित का तत्त्वसंग्रह नामक ग्रन्थ कुमारिल की कारिकाओं से भरा पड़ा है। शान्त रक्षित की आयु सौ वर्ष के लगभग थी और प्रायः 780 ई० में, तिब्बत में उनका देहावसान हुआ था / इस उल्लेख के आधार पर कुमारिल ईसा की आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से उठकर 1 भाण्डारकर प्राच्य विद्यामन्दिर की पत्रिका, जिल्द 11, पे० 149 पर मुद्रित 'समन्तभद्र का समय शीर्षक लेख / 2 देखो, राहुलजी लिखित 'तिब्बत में बौद्धधर्म' पृ०१२। वादन्याय के परिशिष्टों में,राहुलजी ने शान्तरक्षित का समय ई० 740 से 840 तक लिखा है, किन्तु वह ठीक नहीं जंचता, क्योंकि 740 ई. में शान्तरक्षित का जन्म मानने से हरिभद्रसूरि के द्वारा उनका उल्लेख किया जाना सङ्गत प्रतीत नहीं होता। तथा शान्तरक्षित और उसके शाक्षात् शिष्य तथा टीकाकार कमलशील ने न धर्मोत्तर का ही उल्लेख किया है और न प्रज्ञाकर का / जब धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान् हैं तो आठवीं के उत्तरार्द्ध और 9 वी के पूर्वार्द्ध के विद्वानों के द्वारा उनका उल्लेख किया जाना आवश्यक था। अतः यही प्रतीत होता है कि तत्त्वसंग्रह की रचना धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर के साहित्यिक अभ्युदय होने से पहले ही हो गई थी।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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