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________________ प्रस्तावना 101 इसमें एक बाधक है और वह है श्लोक में आगत 'देवसंघस्य ' पद। देवनन्दि नन्दिसंघ के आचार्य थे और अकलङ्क देवसंघ के / यद्यपि अकलङ्क ने अपने संघ आदि का कहीं उल्लेख नहीं किया और श्रवणबेलगोली के एक शिलालेख में अकलङ्कदेव के बाद संघभेद होने का उल्लेख है, तथापि परम्परा से ऐसा ही सुना जाता है। परन्तु हरिवंशपुराण की अन्य प्रतियों में इस पद के स्थान में दो पाठान्तर पाये जाते हैं और उनसे इस समस्या को सुलझाया जा सकता है। एक प्रति में 'देववन्द्यस्य' पाठ है और दूसरी में 'देवनन्दस्य'। दूसरा पाठ यद्यपि शुद्ध प्रतीत नहीं होता तथापि उससे इतना पता चलता है कि पूर्वज विद्वान भी 'देव' पद से 'देवनन्दि' का ही ग्रहण करते थे और उसी का फल 'देवनन्दस्य' पाठ है। प्रथम पाठ शुद्ध है और 'देवसंघस्य' के स्थान में वही उपयुक्त प्रतीत होता है। पं० नाथूरामजी प्रेमी ने भी 'देववन्द्यस्य' पाठ ही रखा है। अतः हरिवंशपुराण के 31 वें श्लोक में देवनन्दि का ही स्मरण किया गया है। 39 वें श्लोक में यद्यपि वीरनन्दि की कीर्ति को 'अकलङ्का' बतलाया है किन्तु अकलङ्क जैसे महान वाग्मी का इस प्रकार उल्लेख किया जाना संभव प्रतीत नहीं होता। अतः हम तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हरिवंशपुराणकार ने अकलदेव का स्मरण नहीं किया। किन्त उनके स्मरण करने या न करने से प्रकृत मन्तव्य की पुष्टि नहीं होती। क्योंकि स्मरण करने से केवल इतना ही प्रमाणित होता है कि अकलङ्क वि० सं० 840 से पहले हो गये हैं, जो हमें भी इष्ट है / और न करने से यही कहा जा सकता है कि अकलंक हरिवंशपुराण की रचना के बाद में हुए हैं। किन्तु अकलंक को राजा कृष्णराज या दन्तिदुर्ग का समकालीन मानने वालों को भी यह अभीष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि यह निष्कर्ष उनके मत के विरुद्ध जाता है। अतः प्रथम हेतु निस्सार है और यदि वह सारवान् हो भी तो उससे इतना ही प्रमाणित होता है कि अकलंक हरिवंशपुराण की रचना से पहले हुए हैं, जो हमें अभीष्ट ही है। - 2 दूसरे हेतु से भी केवल इतना ही सिद्ध होता है कि अकलंक हरिवंशपुराण की रचना से पहले हुए हैं और इसमें किसी को भी विवाद नहीं है। . 3 धर्मकीर्ति से अकलंक की तुलना करते हुए हम बतला आये हैं कि अकलंक ने धर्मकीर्ति के प्रकरणों को न केवल देखा ही है किन्तु उनके अनेक मन्तव्यों का उन्हीं के शब्दों में खण्डन किया है और उनके कुछ अंश भी उद्धृत किये हैं। अतः इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि अकलंक ने धर्मकीर्ति का खण्डन किया है / किन्तु इससे धर्मकीर्ति और अकलंक के बीच में एक शताब्दी का अन्तराल नहीं माना जा सकता, दो समकालीन ग्रन्थकार भी-यदि उनमें से एक वृद्ध हो और दूसरा युवा तो-एक दूसरे का खण्डन मण्डन कर सकते हैं / इतिहास में इस प्रकार के उदाहरणों की कमी नहीं है / अतः धर्मकीर्ति का खण्डन करने के कारण अकलंक को उससे एक शताब्दी बाद का विद्वान नहीं माना जा सकता। 3 ऊपर लिख आये हैं कि डाक्टर पाठक ने पहले अकलंक को शुभतुंग का समकालीन घोषित किया था, बाद को साहसतुंग का समकालीन मानकर अपने मत में परिवर्तन कर डाला, और वहीं उसका कारण भी बतला आये हैं / किन्तु उक्त कारण के सिवाय इस मतपरिवर्तन 10 शिला० सं० पृ० 212 / 2 हरिवंशपुराण ( मा० ग्र० मा० ) पृ. 4 / 3 'जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दि' शीर्षक लेख, जैन सा० संशो० भाग 1, अंक 1 / /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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