________________ 100 न्यायकुमुदचन्द्र हैं, क्यों कि उनके अष्टशती भाष्य पर ही अष्टसहस्री लिखी गई है। इससे भी ज्ञात होता है कि अकलंकदेव संवत् 840 के पहले हो गये हैं। आश्चर्य नहीं कि हरिवंश की रचना के समय उनका अस्तित्व न हो। 3 धर्मकीर्ति ने 'त्रिलक्षण हेतु' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। अकलंक की अष्टशती में उसका खण्डन किया गया है / इससे स्पष्ट है कि धर्मकीर्ति के बाद अकलंकदेव हुए हैं / धर्मकीर्ति का समय ईस्वी सातवीं शताब्दी का पूर्व भाग माना जाता है / अंतः उसके बाद आठवीं शताब्दी में अकलंकदेव का अस्तित्व मानना उचित है ... 4 'दिगम्बर जैन साहित्य में कुमारिल का स्थान' नामक लेख में यह सिद्ध किया गया है कि अकलंक की अष्टशती पर कुमारिल ने कटाक्ष किये हैं। और कमारिल अकलंक के बाद तक जीवित रहे थे। यही कारण है कि अकलंक, अष्टशती पर किये गये आक्षेप का उत्तर नहीं दे सके थे। कुमारिलभट्ट का समय वि० सं० 757 से 817 ( ई० 700 से 760 ) तक निश्चित है अत एव अकलंक का समय भी करीब करीब यही हो सकता है। 5 अकलङ्कचरित नामक ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि शक सं 700 में अकलङ्कयति का बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ था। इससे सिद्ध है कि शक सं० 700 ( ई० 778, अथवा वि० सं० 835) में अकलङ्क विद्यमान थे। आलोचना 1 दिगम्बर जैन परम्परा में दो जैनाचार्य, पूज्यपाददेवनन्दि और अकलङ्कदेव, 'देव' नाम से ख्यात हैं। संभवतः डा० भण्डारकार को ( यदि उन्होंने हरिवंश पुराण के 31 वें श्लोक में आगत 'देव' शब्द से अकलङ्कदेव का ग्रहण किया है तो) यह बात ज्ञात न थी. इसी से उन्होंने हरिवंशपुराण में आगत 'देव' शब्द से अकलङ्क का ग्रहण किया है। किन्तु 'इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्याडिव्याकरणेक्षिणः' विशेषण से यह बात स्पष्ट होजाती है कि वे 'देव' इन्द्र, चन्द्र आदि समस्त व्याकरणों के पारगामी थे, अतः इस विशेषण के आधार पर, 'देव' शब्द से जैनेन्द्रव्याकरण के रचयिता प्रसिद्ध वैयाकरण देवनन्दि का ही स्मरण किया गया है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। आदिपुराणकार तथा वादिराज ने-जिन्होंने अकलङ्कदेव का भी स्मरण किया है-इनका इसी संक्षिप्त नाम से स्मरण किया है। यथा-' "कवीनां तीर्थकृद्देवः कितरांस्तत्र वर्ण्यते / विदुषां वाङ्मलध्वांसि तीर्थ यस्य वचोमयम् // 52 // " आ० पु० प्र० पर्व "अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवंद्यो हितैषिणा / शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः // " पार्श्व० च० 1-18 / हरिवंशपुराण के पश्चात् आदिपुराण की रचना हुई है और हरिवंशपुराण की तरह आदिपुराणकार ने भी 'देव' की वाणी की ही प्रशंसा की है। तथा हरिवंशपुराण में 'देव' के पश्चात् ही वज्रसूरि का स्मरण किया गया है जो देवनन्दि के शिष्य थे और जिनका पूरा नाम वज्रनन्दि था। अतः जिस प्रकार वज्रनन्दि का नन्दि पद छोड़कर केवल 'वज्र' नाम ग्रहण किया है उसी प्रकार देवनन्दि का नन्दि पद छोड़कर केवल देव शब्द से ही उल्लेख किया है। अतः हरिवंशपुराण के 31 वें श्लोक में देवनन्दिका ही स्मरण किया गया है। किन्तु