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________________ प्रस्तावना 99 प्रमाण मानकर अकलङ्क का समय विक्रम सं०८१० से 832 तक (ई०७५३ से 775 तक) बतलाया था। कुछ वर्षों के पश्चात डाक्टेर पाठक ने अपने उक्त मत में थोड़ा सा परिवर्तन कर दिया, उन्होंने अकलङ्क को राष्ट्रकूटराजा शुभतुङ्ग के स्थान में उसके भतीजे राजा साहसतुङ्ग दन्तिदुर्ग का समकालीन माना। इस मतपरिवर्तन का कारण उन्होंने नहीं बतलाया। हम मल्लिषेणप्रशस्ति के कुछ श्लोक उद्धृत कर चुके हैं, जिनमें से एक श्लोक में साहसतुङ्ग राजा का नाम आता है। संभवतः कथाकोश के उल्लेख की अपेक्षा प्रशस्ति के उल्लेख को विशेष प्रामाणिक मानकर ही उक्त मतपरिवर्तन किया गया था। किन्तु उससे अकलङ्क के निर्धारित समय में विशेष अन्तर नहीं पड़ा, क्योंकि राजा कृष्णराज, राजा दन्तिदुर्ग का उत्तराधिकारी था और दन्तिदुर्ग की मृत्यु के पश्चात् वि० सं० 817 ( ई० 760 ) के लगभग राज्यासन पर बैठा था। दन्तिदुर्ग का राज्यकाल वि० सं० 801 से 816 तक ( ई० 744 से 759) बतलाया जाता है, अतः डाक्टर पाठक के मत से अकलङ्क का भी यही समय समझना चाहिये / इस प्रकार डाक्टर के० बी० पाठक ने अकलङ्क का समय ईसा की आठवीं शताब्दी का मध्यकाल निर्धारित किया और एक दो के सिवाय सभी उत्तरकालीन लेखकों ने न केवल उसे स्वीकार ही किया किन्तु उसके समर्थन में बहुत से हेतु भी सङ्कलित कर डाले। किन्तु आगे के विवेचन से प्रतीत होगा कि वे हेतु प्रकृत पक्ष का समर्थन करने में न केवल अशक्त ही हैं किन्तु उसके विरुद्ध भी हैं। प्रकृतपक्ष के समर्थन में जो हेतु दिये जाते हैं, संक्षेप में वे निम्नप्रकार हैं 1 स्वर्गीय भण्डारकार ने लिखा है कि जिनसेनाचार्य ने अपने हरिवंशपुराण में सिद्धसेन, अकलंक आदि का उल्लेख किया है / हरिवंशपुराण के देखने से पहिले सर्ग का 31 वां और 39 वां श्लोक ऐसे मिलते हैं जिनसे प्रकारान्तर रूप में अकलंक का उल्लेख हुआ कहा जा सकता है / 31 वें श्लोक में लिखा है कि इन्द्र, चन्द्र, अर्क, जैनेन्द्र व्याकरणों से अत्यन्त शुद्ध देवसंघ के देव की वाणी नियम से वन्दनीय है। अकलंकदेव का उल्लेख केवल देव नाम से हुआ मिलता है और वे देवसंघ के आचार्य भी थे। अतः यह माना जा सकता है कि हरिवंशपुराण के कर्ता ने इस श्लोक द्वारा श्री अकलंकदेव का स्मरण किया है। 39 वें श्लोक में श्री वीरसेनाचार्य की कीर्ति को अकलंक कहा गया है। इस प्रकार यदि यह माना जाये कि उक्त श्लोकों में अकलंक का उल्लेख हुआ है, तो कहना होगा कि हरिवंशपुराण की रचना के समय अर्थात् वि० सं० 840 ( ई० 783 ) में अथवा उससे पहले अकलंक देव विद्यमान थे। 2 हरिवंशपुराण वि० सं० 840 में बना है। उसमें कुमारसेन का उल्लेख है / इन्हीं कुमारसेन का उल्लेख विद्यानन्द स्वामी ने अपनी अष्टसहस्री के अन्त में किया है। लिखा है कि उनकी सहायता से हमारा यह ग्रन्थ वृद्धि को प्राप्त हुआ / अकलंकदेव विद्यानन्द से पहले 1 प्रा. विद्या मं० पू० की पत्रिका जिल्द 11, पे० 155 पर मुद्रित "शान्तरक्षितास् रिफ्रेन्सेस् टु कुमारिलास् अटैक्स ओन समन्तभद्र एन्ड अकलङ्क।" 2 जनहितैषी भा० 11, अंक 7,8 तथा जै० सि. भास्कर भा० 3, किरण 4 में प्रकाशित 'भट्टाकलंक' शीर्षक निवन्धों से ये हेतु संकलित किये गये हैं। R. G. Bhandarkar's, Principal Results of My last Two years Studies in Sanskrit M. Ss. list ( 1889) पे० 31 / 4 “इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्याडिव्याकरणक्षिणः / देवस्य देवसंघस्य न वन्दते गिरः कथम् / "5 'वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलङ्कावभासते।'
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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