________________ न्यायकुमुदचन्द्र शंकराचार्य और अकलंक-बौद्धों के विभिन्न मतों की आलोचना करने के बाद अकलंक ने न्यायविनिश्चय के प्रथम प्रस्ताव का उपसंहार करते हुए 'ज्ञात्वा विज्ञाप्तमात्रं परमपि च' इत्यादि श्लोक लिखा है। शांकरभाष्य में भी हम बिल्कुल इसी आशय की दिग्दर्शक पंक्तियाँ पाते हैं। यथा-"केषाञ्चित् किल विनेयानां बाह्ये वस्तुन्यभिनिवेशमालक्ष्य तदनुरोधेन बाह्यार्थवादप्रक्रियेयं विरचिता। नासौ सुगताभिप्रायः, तस्य तु विज्ञानैकस्कन्धवाद एव अभिप्रेतः / . ..... "अपि च बाह्यार्थविज्ञानशून्यवादत्रयमितेरतरविरुद्धमुपदिशता सुगतेन स्पष्टीकृतमात्मनोऽसम्बद्धप्रलापित्वम् / " शांकरभाष्य का परिशीलन करने से कुछ अन्य भी ऐसे स्थल मिलते हैं जिनमें अकलंक की लेखनी प्रतिबिम्बित सी प्रतीत होती है। शंकराचार्य ने जैनमत का जो निर्देश किया है वह भी तत्त्वार्थसूत्र की किसी टीका से लिया गया जान पड़ता है, क्योंकि उसमें सात तत्त्व, पञ्च अस्तिकाय, और उनके फल सम्यग्दर्शन का निर्देश किया है। संभव है ये सब बातें अकलंक के राजवार्तिक से ली गई हों, क्योंकि उक्त सब बातों के साथ साथ सप्तभंगी का विवेचन उसी में मिलता है। यदि हमारी संभावना सत्य है तो कहना होगा कि शंकराचार्य ने अकलंक के प्रकरणों का विहङ्गावलोकन किया था। वाचस्पति और अकलंक-ब्राह्मण विद्वानों में वाचस्पति नाम के एक प्रकाण्ड विद्वान् हो गये हैं। ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य पर 'भामती' नाम को इनकी टीका सर्वविश्रुत है / इस टीका में इन्होंने एक स्थल पर 'यथाहुः' करके निम्नलिखित वाक्य उद्धृत किया है-'नहीदमियतो व्यापारान् कर्तुं समर्थ संनिहितविषयबलेनोत्पत्तेः अविचारकत्वात् / " अकलंकदेव के लघीयत्रय की विवृति में यह वाक्य निम्न प्रकार से पाया जाता है-“न हि प्रत्यक्षं यावान् कश्चिद् धूमः कालान्तरे देशान्तरे च पावकस्यैव कार्य नार्थान्तरस्येति इयतो व्यापारान् कर्तुं समर्थ सन्निहितविषयषलोत्पत्तेरविचारकत्वात् / यद्यपि दोनों वाक्यों में कुछ अन्तर पड़ गया है फिर भी दोनों की साम्यता स्पष्ट है। वाचस्पति ने समन्तभद्र के आप्तमीमांसा नामक प्रकरण से दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं। अतः उन्होंने आप्तमीमांसा की विवृति अष्टशती भी अवश्य देखी होगी, क्योंकि वाचस्पति और अकलंक के बीच में दो शताब्दियों का अन्तराल है। अकलदेव का समय हम लिख आये हैं कि कथाकोश में अकलङ्क को मान्यखेट के राजा शुभतुङ्ग के मंत्री का पुत्र लिखा है। राष्ट्रकूटवंशी राजाओं में कृष्णराज प्रथम की उपाधि शुभतुङ्ग कही जाती है / किन्तु उसके समय में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट नहीं थी। अस्तु, मुख्यतया इसी आधार पर डा० के० बी० पाठक ने अकलङ्क को कृष्णराज प्रथम का समकालीन घोषित किया था। डा० विद्याभूषण ने भी डा० पाठक के उक्त मत का अनुसरण करते हुए, अकलङ्क का समय ई० 750 के लगभग निर्धारित किया था। उसके बाद पं० नाथूरामजी प्रेमी ने 'भट्टाकलङ्क' शीर्षक से एक विस्तृत निबन्ध लिखा था और उसमें उक्त दोनों विद्वानों के मत को १'धर्मकीर्ति और अकलंक' शीर्षक में यह श्लोक लिख आये हैं। 2 पृ. 479 / 3 भामती पृ. 766 / 4 का० 3-2 / 5 का० 103-104 / 6 भामती पृ० 482 / 7 हिस्ट्री आफ दी मिडियावल स्कूल ओफ इन्डियन लॉजिक, पृ० 26 / 8 जनहितैषी भाग 11, अंक 7-8 /