SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना हैं / तिब्बतदेशीय उल्लेखों के आधार पर राहुलजी ने उनका समय 700 ई० लिखा है जो जैनाचार्यों के उल्लेखों से भी प्रमाणित होता है। मुनि कल्याणविजयजी के द्वारा लिखित हरिभद्रसूरि के धर्मसंग्रहणी नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना हमारे सन्मुख है। उसमें धर्मसंग्रहणी में उल्लिखित ऐतिहासिक पुरुषों की नामावली में प्रज्ञाकर का नाम दिया है। हरिभद्र का सुनिश्चित समय (700 से 770 ई०) हम ऊपर लिख आये हैं / अतः राहुलजी द्वारा आविष्कृत समय हमें उचित जान पड़ता है और इस लिये प्रज्ञाकर को धर्मोत्तर का गुरुसमकालीन मानने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। अर्चट-अनन्तवीर्य के उल्लेख से प्रकट होता है कि धर्मकीर्ति के टीकाकार अर्चट का भी अकलंक ने खण्डन किया है। विद्याभूषण लिखते हैं कि न्यायावतार की विवृति से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्चट ने धर्मोत्तर का खण्डन किया है। राहुलजी ने भी अर्चट का समय धर्मोत्तर के बाद 825 ई० बतलाया है / अतः अर्चट को 9 वीं शताब्दी के प्रारम्भ का विद्वान् मानना होगा। ... इस प्रकार प्रज्ञाकर का समय ईसा की आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध, धर्मोत्तर का मध्य और अर्चट का समय ९वीं का प्रारम्भ प्रमाणित होता है। इस पर से हम कह सकते हैं कि टीकाकारों ने अकलंक के द्वारा जो उक्त ग्रन्थकारों का खण्डन कराया है वह इतिहासविरुद्ध है जैसा कि अकलंक के समयनिर्णय से ज्ञात हो सकेगा / हम लिख आये हैं कि दार्शनिकों में ऐतिहासिक दृष्टिकोण का ध्यान रखते हुए अनुशीलन करने की पद्धति का प्रचार न था। तथा इसकी पुष्टि में धर्मोत्तर के टिप्पणकार मल्लवादी का उदाहरण भी दे आये हैं। दूसरा उदाहरण और लीजिये / हम लिख आये हैं कि 'भेदानां बहुभेदानां तत्रैकत्रापि संभवात्' धर्मकीर्ति के 'भेदानां बहुभेदानां तत्रैकस्मिन्नयोगतः' का ही उत्तर है। किन्तु न्यायविनिश्चय के टीकाकार वादिराज इसे व्याससूत्र ‘नैकस्मिन्नसंभवात्' का उत्तर बतलाते हैं। यद्यपि अकलंक के उक्त कारिकाध को व्याससत्र के विरोध में भी उपस्थित किया जा सकता है. क्योंकि उक्त सत्र में भी एक वस्त में अनेक धर्मों की स्थिति को असंभव बतलाया है। किन्त धर्मकीर्ति के कारिकाध के साथ उसका सम्बन्ध स्पष्ट प्रतीत होता है। अतः वादिराज अतः वादिराज का लेख निर्धान्त नहीं कहा जा सकता। अतः प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर और अचेट का अकलंक के ग्रन्थों में खण्डन होने का जो उल्लेख टीकाकारों ने किया है वह तब तक निर्धान्त नहीं कहा जा सकता जब तक उक्त तीनों बौद्ध विद्वानों को धर्मकीर्ति के साक्षात् शिष्य या प्रशिष्य होने का सौभाग्य प्राप्त न हो। 1 धर्मसंग्रहणी का पूर्व भाग उपलब्ध नहीं हो सका इसलिये हम इसका निर्णय नहीं कर सके कि प्रज्ञाकर का उल्लेख मूल में है या मलयगिरि की टीका में है? क्योंकि शीर्षक में 'सटीकायां धर्मसंग्रहणौ' लिखा है। किन्तु स्थलनिर्देश में सर्वत्र गाथानम्बर और उसकी 1 या 2 पंक्ति का ही निर्देश किया है। जैसे प्रज्ञाकर के आगे 403.2, 440-2 लिखा है। इस पर से हम इसी निर्णय पर पहुँचे हैं कि हरिभद्र ने स्वयं प्रज्ञाकरगुप्त का उल्लेख किया है। 2 वादन्याय का परिशिष्ट / 3 हिस्ट्री आफ दी मिडियावल स्कूल आफ इन्डियन लाजि० पृ. 133 / 4 व्याससूत्र बहुत प्राचीन है, अतः अकलंक के वचनों के द्वारा उसका खण्डन कराने में समयक्रम में कोई गड़बड़ी उपस्थित नहीं होती। किन्तु यहां केवल यही बतलाना है कि टीकाकार एक ही विचार को किसी का भी विरोधी देखकर उसका ही विरोधी लिख देते थे। पौर्वापर्य का विशेष ध्यान नहीं रखते थे। या रखने पर भी भ्रमवश ऐसा हो जाता था।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy