________________ न्यायकुमुदचन्द्र है। मल्लवादी लिखते हैं कि धर्मोत्तर ने अपनी टीका में विनीतदेव के मत पर आक्षेप किये हैं। और डा० विद्याभूषण ने विनीतदेव का समय 700 ई० के लगभग निर्धारित किया है अतः हरिभद्र सूरि के धर्मोत्तर कोई प्रथक व्यक्ति हैं। रशियन विद्वान् चिरविट्स्की ने भी मल्लवादी के उल्लेख को प्रमाण मानकर विनीतदेव को धर्मोत्तर का पूर्वज बतलाया है। किन्तु खोज से पता चला है कि धर्मोत्तर के द्वारा आक्षिप्त मन्तव्य विनीतदेव के नहीं हैं किन्तु किसी दूसरे ग्रन्थकार के हैं। बौद्ध भिक्षु राहुलजी ने तिब्बतदेशीय प्रमाणों के आधार पर बौद्ध ग्रन्थकारों की जो तालिका प्रकाशित की है तथा उनका समय निर्दिष्ट किया है, उसमें भी धर्मोत्तर नाम के दो व्यक्तियों का सङ्केत तक नहीं है। तथा धर्मोत्तर का समय 725 ई० और विनीत. देव का 750 ई० लिखा है। अतः टीकाटिप्पणकारों के निर्देशों को सर्वथा निर्धान्त समझकर प्रमाण मान लेना किसी भी तरह उचित नहीं है, और विशेषतया उस दशा में, जब मूलकार और टीका-टिप्पणकार के समय में शताब्दियों का अन्तराल हो। भारत में ऐतिहासिक क्रम से अध्ययन की पद्धति का चलन न होने के कारण टीकाकार जिस उपलब्ध ग्रन्थ में मूलकार के द्वारा आक्षिप्त मत का सङ्केत पाते थे उसी के रचयिता का वह मत मान लेते थे। ऐतिहासिक दृष्टिकोण न होने के कारण संभवतः वे इस बात की खोज न करते थे कि वही मत उपलब्ध ग्रन्थ के पूर्ववर्ती किसी अन्य ग्रन्थ में तो नहीं है ? अकलंक के टीकाकारों को भी संभवतः इसी प्रकार का भ्रम हुआ है और उन्होंने अकलंक के द्वारा धर्मोत्तर का खण्डन करा दिया है। हम ऊपर सिद्ध कर आये हैं कि धर्मोत्तर नाम के दो व्यक्ति नहीं हुए और हरिभद्रसूरि (700-770 ई०) के द्वारा उल्लिखित धर्मोत्तर ही प्रसिद्ध धर्मोत्तर हैं। अतः 700 ई० से 780 ई० तक उनका समय मान लेने पर हरिभद्र के द्वारा उनका उल्लेख तथा तिव्बतीय प्रमाण ठीक ठीक घटित हो जाते हैं। तथा यह समय चिरविट्स्की महोदय के लेख के भी अनुकूल बैठ सकता है। क्योंकि काश्मीर नरेश जयापीड़ ने 751 ई० में राजपद प्राप्त किया था, अतः उसके द्वारा धर्मोत्तर का निमंत्रित किया जाना सर्वथा संभव है। - प्रज्ञाकर-धर्मोत्तर की तरह प्रज्ञाकर का समय भी अभी तक सुनिश्चित नहीं हो सका है। डा० विद्याभूषण उन्हें 10 वीं शताब्दी का विद्वान् बताते हैं, और रशियन पंडित चिरैविट्स्की उनके बारे में कोई निर्णय नहीं कर सके हैं। जैनाचार्य विद्यानन्द ने प्रज्ञाकर का उल्लेख किया है। और डा० विद्याभूषण उन्हें नवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का विद्वान् बताते हैं। इस कारण वे लिखते हैं कि यह प्रज्ञाकर बौद्धनैयायिक प्रज्ञाकर गुप्त से जुदा प्रतीत होता है। किन्तु हमें तो विद्याभूषणजी की उक्त संभावना मुनि जिनविजयजी को धर्मोत्तरविषयक कल्पना जैसी ही प्रतीत होती है। हम ऊपर लिख आये हैं कि जैन नैयायिकों ने प्रज्ञाकर को खब देखा था और वह प्रज्ञाकर वार्तिकालङ्कार का रचयिता प्रसिद्ध प्रज्ञाकर गुप्त ही था / वार्तिकालङ्कार के प्रकाश में आ जाने पर, इस विषय पर विशेष प्रकाश डाला जा सकेगा। राहुलजी के संग्रह में भी प्रज्ञाकर नाम के एक ही व्यक्ति का उल्लेख है जो वार्तिकालंकार के रचयिता 1 देखो, वादन्याय के परिशिष्ट / 2 हिस्ट्री आफ दा मिडियावल स्कूल ऑफ इन्डियन लॉजिक पृ० 135 / 3 बुद्धिस्ट लॉजिक / 4 अष्टसहस्री पृ० 21 / 5 हिस्ट्री आफ दी मिडियावल स्कूल आफ इन्डियन लॉजिक पृ० 28 /